किसमें भरोसा करें, विज्ञान या भगवान?





किसमें
भरोसा करें, विज्ञान या भगवान?

विज्ञान एक ऐसा विषय है जो हमेशा तथ्यों पर ही यकीन करता है, विज्ञान उसी को स्वीकार करता है जो उसकी परिभाषा में सटीक बैठता है, और वैज्ञानिकों को उस पर कोई मतभेद भी नहीं रहता है।

सदियों से यह प्रश्न चला रहा है कि क्या वास्तव में भगवान है? क्या भगवान ने ही इस ब्रह्मांण का निर्माण किया है? भगवान की बात करे तों इस पर आधी से ज्यादा आबादी भगवान के अस्तित्व में यकीन करती है और बहुत से नहीं भी करते हैं।

 

अक्सर लोग जो भगवान के अस्तित्व पर यकीन नहीं करते हैं वे विज्ञान का ही हवाला देकर कहते हैं कि भगवान के अस्तित्व को विज्ञान भी नहीं मानता है, और ना ही उसका कोई प्रमाण विज्ञान के पास है।

दोस्तों, यह बात आधी सच है और आधी नहीं है, भले ही विज्ञान के पास भगवान का कोई ठोस सबुत ना हों पर कई अनुसंधान और शोधो में यह बातें सामने वैज्ञानिकों के सामने ही जाती हैं जिसमें उन्हें किसी ना किसी अलौकिक शक्ति का आभाष होता है। वैसे भी विज्ञान अभी उतना उन्नत भी नहीं है कि भगवान के बारे में फिलहाल जान सके।

 

लॉर्ड केल्विन 19वीं सदी के महान वैज्ञानिकों में गिने जाते हैं.

वो एक धर्मनिष्ठ ईसाई थे, जिन्होंने अपने धर्म और विज्ञान में सामंजस्य बिठाने का तरीका ढूंढा लेकिन इसके लिए उन्हें डार्विन सहित अपने ज़माने के वैज्ञानिकों से संघर्ष करना पड़ा.

उस वक़्त के इस संघर्ष की गूंज मौजूदा दौर में विज्ञान और धर्म की बहस में भी सुनाई देती हैं.

केल्विन पैमाने के अलावा यांत्रिक यानी मैकनिकल ऊर्जा और गणित के क्षेत्र में उनका शोध यूरोप और अमरीका को जोड़ने के लिए इस्तेमाल होने वाली ट्रांस अटलांटिक केबल को बिछाने में अहम साबित हुआ है.

 

वो ब्रिटेन के पहले वैज्ञानिक थे जिन्हें हाउस ऑफ़ लॉर्ड्स में जगह मिली. उनका हमेशा ये विश्वास रहा कि उनकी आस्था से उन्हें बल मिला है और उनके वैज्ञानिक शोध को प्रेरणा मिली है.

 

आस्था और विज्ञान का सामंजस्य

केल्विन का मानना था कि विज्ञान का पूरा सम्मान होना चाहिए. उनका कहना था, "वैज्ञानिक मानते हैं कि विज्ञान ने सृष्टि को बनाने वाले में आस्था जताने से बचते हुए भी प्रकृति के सभी तथ्यों की व्याख्या करने का तरीका ढूंढ लिया है. मेरा मानना है कि ये धारणा निराधार है. मैंने जितना शोध किया, मुझे लगता गया कि विज्ञान में नास्तिकता की जगह नहीं है. अगर आप मज़बूती से सोचते हैं तो विज्ञान आपको भगवान में भरोसा रखने के लिए मजबूर करेगा." केल्विन बाइबल पढ़ते थे और रोज़ाना चर्च जाते थे.

 

बेलफ़ास्ट के क्वींस विश्वविद्यालय के डॉक्टर एंड्र्यू होम्स बताते हैं, "अपने सभी कामों में केल्विन की कोशिश रही कि वो अपनी आस्था, राजनीति और व्यावसायिक हितों को मिला सकें"

केल्विन के कुछ सिद्धांत ग़लत साबित हुए, इनमें पृथ्वी की आयु की ऊपरी सीमा तय करना भी शामिल था. केल्विन ने अंदाज़ा लगाया था कि ये सीमा कुछ करोड़ साल होगी.

डॉक्टर होम्स कहते हैं, "कुछ लोग केल्विन को ख़ारिज कर सकते हैं क्योंकि धरती के ठंडे होने को लेकर उनका काम ग़लत साबित हुआ था और उन्होंने विद्युत चुंबकत्व यानी इलेक्ट्रोमैग्नेटिज़्म पर मैक्सवेल के काम को गंभीरता से नहीं लिया था. लेकिन उन्हें 19वीं सदी प्रमुख भौतिकशास्त्रियों में गिना जाता है."

 

पृथ्वी की उम्र कम बताने की वजह से भूगर्भशास्त्री और डार्विनवादी संतुष्ट नहीं थे लेकिन ईश्वरवादियों को ये उम्र बहुत ज़्यादा लगती थी, इस वजह से केल्विन धर्म और विज्ञान के बीच फंस कर रह गए.

केल्विन ने डार्विन के प्राकृतिक चयन के सिद्धांत का ये कहते हुए विरोध किया कि डार्विन ने प्रकृति की रचना में ईश्वर की मौजूदगी के सबूतों को नज़रंदाज़ किया है और उन्होंने ये भी मानने से इनकार कर दिया कि मृत पदार्थों के परमाणु कभी मिलकर जीवन बना सकते हैं.

 

विज्ञान बनाम धर्म

आज के दो प्रमुख वैज्ञानिकों, मशहूर भौतिकशास्त्री स्टीफ़न हॉकिंग और रिचर्ड डॉकिंस, ने धर्म का जमकर विरोध किया है.

 

तो क्या ये माना जाए कि आज के वैज्ञानिक केल्विन की तरह ही आस्था रखते हैं या आस्था और विज्ञान आज बहुत दूर हो गए हैं.

 

अमरीका के टेक्सस की राइस यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर एलीन एक्लंड ने साल 2005 में अमरीका के आला विश्वविद्यालयों के वैज्ञानिकों में सर्वे किया, उन्होंने पाया कि 48% लोगों की धार्मिक आस्था थी और 75% लोग मानते थे कि धर्म से महत्वपूर्ण सच का पता चलता है.

 

वो कहती हैं, "ये कहना ग़लत होगा कि आज उन वैज्ञानिकों की संख्या ज़्यादा है जो ईसाई हैं. लेकिन निश्चित रूप से ऐसे वैज्ञानिक हैं जो अपने वैज्ञानिक काम को अपनी आस्था से जुड़ा हुआ मानते हैं."

अमरीकी आनुवांशिक वैज्ञानिक फ़्रांसिस कॉलिंस ने कहा था, "हमारे समय की एक बड़ी त्रासदी ये धारणा है कि विज्ञान और धर्म में संघर्ष होना ही चाहिए."

 

निरंतर संघर्ष?

तो क्या वाकई में विज्ञान और धर्म प्राकृतिक रूप से एक दूसरे के खिलाफ़ हैं?

 

स्टीफ़न हॉकिंग ने अपनी किताब ' ग्रैंड डिज़ाइन' में लिखा है, "स्वाभाविक रचना ही वो वजह है कि कुछ होने की जगह कुछ है, ये ब्रह्मांड क्यों है, हम क्यों हैं. ये ज़रूरी नहीं है कि हचलच पैदा करने और ब्रह्मांड को चलाने के लिए भगवान को बुलाया जाए."

 

ऑक्सफ़र्ड विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर जॉन लेनक्स ने साल 2010 में लिखे एक लेख में हॉकिंग के तर्कों का विरोध किया.

 

लेनक्स ने कहा, "हॉकिंग के तर्कों के पीछे जो वजह है वो इस विचार में है कि विज्ञान और धर्म में एक संघर्ष है लेकिन मैं इस अनबन को नहीं मानता."

कुछ साल पहले वैज्ञानिक जोसेफ़ नीडहैम ने चीन में तकनीकी विकास को लेकर अध्ययन किया. वो ये जानना चाहते थे कि आखिर क्यों शुरुआती खोजों के बावजूद चीन विज्ञान की प्रगति में यूरोप से पिछड़ गया.

 

वो अनिच्छापूर्वक इस नतीजे पर पहुंचे कि "यूरोप में विज्ञान एक तार्किक रचनात्मक ताकत, जिसे भगवान कहते हैं, में भरोसे की वजह से आगे बढ़ा, जिससे सभी वैज्ञानिक नियम समझने लायक बन गए."

 

विज्ञान और भगवान में हो संतुलन

भक्त कहते हैं कि भगवान क्या नहीं कर सकता। भौतिक संसार को सब कुछ मानने वाले लोगों केलिए विज्ञान ही भगवान है। विज्ञान के माध्यम से जो चाहो वह कर लो। लेकिन विज्ञान की भी सीमा है। मानसिक शांति के मामले में विज्ञान रुक जाता है। हालांकि चिकित्सा विज्ञान में कुछ दवाइयां हैं, जो मनुष्य को कुछ समय के लिए आवेगरहित कर देती हैं, लेकिन उसे शांति नहीं माना जा सकता।

 

यदि विज्ञान से शांति मिल जाती, तो विकसित देश में सर्वाधिक शांति होती। शायर अकबर ने लिखा था, 'भूलता जाता है यूरोप आसमानी बाप को। बस खुदा समझा है उसने बर्क (बिजली) को और भाप को।Ó बिजली और भाप के आविष्कार ने लोगों को इतना बावला बना दिया कि वे प्रकृति से ही लडऩे लगे। ईश्वर संसार और प्रकृति दोनों में बसा है। संसार में भी परमात्मा को नकारते हैं और प्रकृति में भी। इसलिए संसारी भी अशांत हैं और साधु-संत भी।

 

शांति का अभाव हो जाता है तो ये शांति का भी मुखौटा ओढ़ लेते हैं। हम शांत दिखने में ऊर्जा लगाने लगते हैं। फिर शांति का ये मुखौटा असत्य होने के कारण कुछ और परेशानियां लेकर आता है। ये भीतर सक्रिय रहती हैं। दूसरे हमें शांत मान रहे होते हैं, लेकिन भीतर हम खूब परेशान रहते हैं।

भ्रम और भय का ऐसा जाल हमारे भीतर उत्पन्न हो जाता है कि हम उसी में उलझ जाते हैं। हमें यह डर रहता है कि कहीं मुखौटा हट जाए, लोग क्या कहेंगे। इसीलिए आध्यात्मिक व्यक्ति विज्ञान और भगवान का संतुलन जीवन में रखता है।

  

ईश्वर को चुनौती देता विज्ञान

अमेरिका में 2001 में एक बड़ी उम्र की स्त्री के अंडों में एक युवा स्त्री का साइटोप्लाज्म डालकर उसकी क्वालिटी सुधारने की कोशिश की गई थी। साइटोप्लाज्म जैली की तरह का एक पदार्थ होता है, जो कोशिका की झिल्ली में भरा रहता है। बूढ़ी होती स्त्रियों की कोशिका का साइटोप्लाज्म इस लायक नहीं रहता कि उनके अंडे शुक्राणु के साथ मिलकर गर्भाधान कर सकें।

इस कोशिश का कट्टरपंथी ईसाइयों ने विरोध किया था और इससे समाज में विकृति फैलने की बात कहते हुए इसे ईश्वर के काम में हस्तक्षेप बताया था। जापानी वैज्ञानिकों के  प्रयोग में तो साफ-साफ दो स्त्रियाँ और एक पुरुष शामिल हैं, जिससे प्रयोगशाला में भ्रूण बन सकेगा।

आदमी, भेड़ और चूहे आदि के क्लोन (हूबहू वैसा ही जीवन-रूप) बना चुका है तो जाहिर है वह आदमी का भी बना सकता है। ऐसे समाचार आते भी रहे हैं कि फलाँ मुल्क में आदमी का क्लोन बन चुका है, लेकिन उसकी पुष्टि नहीं हुई। जो भी हो विज्ञान ने यह संभव किया है।

जीन टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल करके आज पौधों और जीवों की नस्ल सुधारी जा सकती है, लेकिन जीवन के इन रूपों में वैसी चेतना नहीं होती, जो मनुष्य में होती है। मनुष्य की नई-नई खोजों ने इस ब्रह्माण्ड और जीवन के बारे में हमारा नजरिया बदल डाला है।

अँगरेज भौतिक शास्त्री और प्रसिद्ध लेखक पॉल डेविस ने कहा थाः "अगर कभी किसी ग्रह के वासी का पता चल गया तो धर्म पर उसका भारी असर पड़ेगा और ईश्वर के बारे में आदमी की पारंपरिक धारणा चूर-चूर हो जाएगी।

 

विज्ञान ने धर्म और ईश्वर की अवधारणा को जबर्दस्त चुनौती दी है। वह आदमी को अमर बनाने की खोज में लगा हुआ है। उसकी खोजों से आज यह बात तक संभव दिखने लगी है कि आगे चलकर लोग डिजाइनर बेबी की कामना करने लगेंगे कि मुझे वैज्ञानिक, मुझे खिलाड़ी, मुझे पहलवान, मुझे राजकुमार या राजकुमारी-सा सुकुमार-सुंदर बेबी चाहिए।

अभी तक मनुष्य जीवन और मृत्यु में निर्णायक हस्तक्षेप नहीं कर सकता था। उसने जन्म देने की प्रक्रिया को माँ और नवजात शिशु के लिए ज्यादा से ज्यादा निरापद बनाने की कोशिश की। जन्म और मृत्यु दर में कमी आई और मनुष्य की आयु बढ़ने लगी।

लेकिन अभी तक जीवन और मृत्यु के बारे में मनुष्य का दखल सीमित था। अब अनंत हस्तक्षेप का मार्ग खुल रहा है और आदमी खुद अपना ईश्वर बनने की कोशिश कर रहा है।

लेकिन क्या आदमी इस प्रकृति को रच सकता है? क्या पहाड़ और समुद्र बना सकता है? क्या वह इस ब्रह्माण्ड में सारे समुद्र तटों पर उपस्थित समूची रेत का एक नन्हा-सा जर्रा माने जानी वाली यह पृथ्वी बना सकता है? ये, तारे, सूरज और चाँद बना सकता है? सौरमंडल और आकाशगंगाएँ बना सकता है? क्या वह सारे संसार को आपस में बाँधे रखने वाला गुरुत्वाकर्षण बल बना सकता है? यह चराचर जगत बना सकता है? इसका जवाब है- नहीं।

वैज्ञानिकों ने युवा स्त्री के अंडों से एक अधिक उम्र वाली स्त्री के क्षतिग्रस्त अंडों को दुरुस्त कर और फिर पुरुष के शुक्राणु से उनका मेल कराकर प्रयोगशाला में भ्रूण की प्रारंभिक अवस्था विकसित कर ली। हालाँकि अभी इन वैज्ञानिकों ने इस विधि से किसी बच्चे को नहीं बनाया है, लेकिन वे चाहें तो ऐसा कर सकते हैं। जाहिर है ऐसे बच्चे के तीन माँ-बाप होंगे। दो माताएँ और एक बाप।

मनुष्य अभी खुद करीब एक लाख साल पहले ही अस्तित्व में आया है, जबकि उसकी पृथ्वी कुल साढ़े चार अरब साल के करीब पुरानी है। यह ब्रह्माण्ड इतना पुराना है कि महाविस्फोट के बाद जो तारे और आकाशगंगाएँ आदि बनीं, उनमें से करोड़ों का प्रकाश अभी पृथ्वी तक पहुँचा भी नहीं है और हर साल नई आकाशगंगाएँ ढूँढी जा रही हैं। निश्चय ही मनुष्य की सीमाएँ हैं।

अभी तक कहीं और जीवन के सबूत नहीं मिले हैं, लेकिन ऐसा कैसे हो सकता है कि सौ अरब से ज्यादा आकाशगंगाओं के होने का अनुमान हो और हर आकाशगंगा में मान लीजिए एक सौ अरब ही तारे हों और फिर भी हम यह मान लें कि सिर्फ एक पृथ्वी पर ही जीवन है!


अंतरिक्ष वैज्ञानिकों ने पृथ्वी जैसे ग्रह-नक्षत्र ढूँढे हैं, लेकिन वहाँ तक पहुँचना एक तो संभव नहीं और मान लो संभव हो भी तो वहाँ तक पहुँचने के लिए हमें कई जिंदगियाँ चाहिए। जाहिर है मनुष्य की एक सीमा है। लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि हम इस विराटता को लेकर झट किसी ईश्वर का अस्तित्व स्वीकार कर लें। एक ऐसा ईश्वर जो हमारी तरह हो या जिन जीवन-रूपों को हम जानते हैं, वैसा हो।

विज्ञान की खोजों से आज यह बात तक संभव दिखने लगी है कि आगे चलकर लोग डिजाइनर बेबी की कामना करने लगेंगे कि मुझे वैज्ञानिक, मुझे खिलाड़ी, मुझे पहलवान, मुझे राजकुमार या राजकुमारी-सा सुकुमार-सुंदर बेबी चाहिए। https://hindi.webdunia.com/img/cm/quote_close.gif

क्या यह नहीं माना जा सकता कि सृष्टि ऐसे ही है और जो कुछ है उसका कोई कारण नहीं है। बस वह है। हम चूँकि कारण ढूँढते हैं, इसलिए भगवान की कल्पना कर लेते हैं। जरा सोचिए यदि किसी दिन कोई एलियन किसी उड़नतश्तरी में बैठकर सचमुच पृथ्वी पर जाए तो भगवान के बारे में हमारी कल्पना कैसी होगी? अँगरेज भौतिक शास्त्री और प्रसिद्ध लेखक पॉल डेविस ने कहा थाः "अगर कभी किसी ग्रह के वासी का पता चल गया तो धर्म पर उसका भारी असर पड़ेगा और ईश्वर के बारे में आदमी की पारंपरिक धारणा चूर-चूर हो जाएगी।उन्होंने यह भी कहा है कि ईसाइयत के लिए तब मुश्किलें और बढ़ जाएँगी, जो यह मानती है कि ईसा मसीह ईश्वर के पुत्र हैं जिन्होंने पृथ्वी पर मानव की मुक्ति के लिए अवतार लिया था। क्या इसका मतलब यह नहीं निकाला जा सकता कि जैसे ईश्वर ने पृथ्वी पर ईसा मसीह को भेजा वैसे ही जिन-जिन ग्रहों पर जीवन है, वहाँ के वासियों की मुक्ति के लिए दूसरे दूतों या अपने पुत्रों को भेजा होगा? यह संकट हिन्दू धर्म के सामने भी पेश होगा, जहाँ एक बड़े वर्ग में अवतारवाद में आस्था है और कहा जाता है कि जब-जब धर्म की हानि होती है, मनुष्य के रूप में प्रभु अवतार लेते हैं। यही कारण है कि वेटिकन ने विशेषज्ञों के एक दल से आग्रह किया है कि वे पता लगाएँ कि पृथ्वी के बाहर क्या कहीं जीवन है। अगर है तो कैथोलिक चर्च के भविष्य पर तब उसका क्या असर पड़ेगा?जाहिर है विज्ञान, ईश्वर के अस्तित्व के बारे में लगातार सवाल उठा रहा है। जिज्ञासा ने ही मनुष्य के लिए धर्म और ईश्वर का अस्तित्व बनाया था और जिज्ञासा ही विज्ञान के जरिए इस अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लगा रही है। विज्ञान कह रहा है कि जीवन की रचना प्रयोगशाला में भी संभव है और मनुष्य, जीवन का नियंता बन रहा है। यह धर्म और ईश्वर के विचार को एक चुनौती है। (नईदुनिया)

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