आषाढ़ की पूनम को ही क्यों मनाई जाती है गुरु पूर्णिमा, जानिए कारण

 

आषाढ़ की पूनम को ही क्यों मनाई जाती है गुरु पूर्णिमा, जानिए कारण


                      गुरुर्ब्रह्मा, गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वर:

गुरुर्साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्री गुरुवे नम:।।

अर्थात गुरु ब्रह्मा, विष्णु और महेश है। गुरु तो परम ब्रह्म के समान होता है, ऐसे गुरु को मेरा प्रणाम। हिन्दू धर्म में गुरु की बहुत महत्ता बताई गई। गुरु का स्थान समाज में सर्वोपरि है। गुरु उस चमकते हुए चंद्र के समान होता है, जो अंधेरे में रोशनी देकर पथ-प्रदर्शन करता है। गुरु के समान अन्य कोई नहीं होता है, क्योंकि गुरु भगवान तक जाने का मार्ग बताता है। कबीर ने गुरु की महिमा का गुणगान करते हुए लिखा है-

गुरु गोविंद दोऊ खड़े काके लागू पाय।

बलिहारी गुरू अपने गोविन्द दियो बताय।

जो व्यक्ति इतना महान हो तो उसके लिए भी एक दिन होता है, वह दिन है 'गुरु पूर्णिमा' गुरु पूर्णिमा हिन्दू कैलेंडर के अनुसार आषाढ़ की पूर्णिमा को मनाया जाता है। गुरु पूर्णिमा, गुरु की आराधना का दिन होता है। गुरु पूर्णिमा मनाने के पीछे यह कारण है कि इस दिन महर्षि वेदव्यास का जन्म हुआ था।

वेदव्यास को हम कृष्णद्वैपायन के नाम से भी जानते है। महर्षि वेदव्यास ने चारों वेदों और महाभारत की रचना की थी। हिन्दू धर्म में वेदव्यास को भगवान के रूप में पूजा जाता है। इस दिन वेदव्यास का जन्म होने के कारण इसे व्यास पूर्णिमा के नाम से भी जाना जाता है।

गुरु पूर्णिमा को आषाढ़ पूर्णिमा, व्यास पूर्णिमा और मुडिया पूनो के नाम से जाना जाता है। यह एक पर्व है जिसे लोग त्योहार की तरह मनाते हैं। यह संधिकाल होता है, क्योंकि इस समय के बाद से बारिश में तेजी जाती है। पुरातन काल में ऋषि, साधु, संत एक स्थान से दूसरे स्थान यात्रा करते थे। चौमासा या बारिश के समय वे 4 माह के लिए किसी एक स्थान पर रुक जाते थे। आषाढ़ की पूर्णिमा से 4 माह तक रुकते थे, यही कारण है कि इन्हीं 4 महीनों में प्रमुख व्रत त्योहार आते हैं।

गुरु पूर्णिमा के दिन सभी लोग वेदव्यास की भक्तिभाव से आराधना अपने मंगलमय जीवन की कामना करते हैं। इस दिन हलवा प्रसाद के रूप में वितरित किया जाता है। बंगाल के साधु इस दिन सिर मुंडाकर परिक्रमा पर जाते हैं। ब्रज क्षेत्र में इस पर्व को मुड़िया पूनो के नाम से मनाते हैं और गोवर्धन पर्वत की परिक्रमा करते हैं। कोई इस दिन ब्रह्मा की पूजा करता है तो कोई अपने दीक्षा गुरु की। इस दिन लोग गुरु को साक्षात भगवान मानकर पूजन करते हैं।

इस दिन को मंदिरों, आश्रमों और गुरु की समाधियों पर धूमधाम से मनाया जाता है। भारत में पूर्व से लेकर पश्चिम तक और उत्तर से लेकर दक्षिण तक सभी जगह गुरुमय हो जाती है। मध्यप्रदेश के खंडवा जिले में धूनी वाले बाबा की समाधि पर यह पर्व बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। इस दिन प्रदेश के साथ-साथ देश और विदेश से भी लोग आते हैं।

गुरु पूर्णिमा आषाढ़ की पूर्णिमा को ही क्यों मनाया जाता है? आषाढ़ की पूर्णिमा को यह पर्व मनाने का उद्देश्य है कि जब तेज बारिश के समय काले बादल छा जाते हैं और अंधेरा हो जाता है, तब गुरु उस चंद्र के समान है, जो काले बादलों के बीच से धरती को प्रकाशमान करते हैं। 'गुरु' शब्द का अर्थ ही होता है कि तम का अंत करना या अंधेरे को खत्म करना!

 

गुरु पूर्णिमा के दिन इस विशेष आरती से करें गुरुवर को प्रसन्न


* गुरु पूर्णिमा विशेष : आरती करूं गुरुवर की प्यारे गुरुवर की आरती

जय गुरुदेव अमल अविनाशी, ज्ञानरूप अन्तर के वासी,

पग पग पर देते प्रकाश, जैसे किरणें दिनकर कीं।

आरती करूं गुरुवर की॥

जब से शरण तुम्हारी आए, अमृत से मीठे फल पाए,

शरण तुम्हारी क्या है छाया, कल्पवृक्ष तरुवर की।

आरती करूं गुरुवर की॥

ब्रह्मज्ञान के पूर्ण प्रकाशक, योगज्ञान के अटल प्रवर्तक।

जय गुरु चरण-सरोज मिटा दी, व्यथा हमारे उर की।

आरती करूं गुरुवर की।

अंधकार से हमें निकाला, दिखलाया है अमर उजाला,

कब से जाने छान रहे थे, खाक सुनो दर-दर की।

आरती करूं गुरुवर की॥

संशय मिटा विवेक कराया, भवसागर से पार लंघाया,

अमर प्रदीप जलाकर कर दी, निशा दूर इस तन की।

आरती करूं गुरुवर की॥

भेदों बीच अभेद बताया, आवागमन विमुक्त कराया,

धन्य हुए हम पाकर धारा, ब्रह्मज्ञान निर्झर की।

आरती करूं गुरुवर की॥

करो कृपा सद्गुरु जग-तारन, सत्पथ-दर्शक भ्रांति-निवारण,

जय हो नित्य ज्योति दिखलाने वाले लीलाधर की।

आरती करूं गुरुवर की॥

आरती करूं सद्गुरु की

प्यारे गुरुवर की आरती, आरती करूं गुरुवर की।

गुरु पूर्णिमा पर करें अपने गुरु की आरती


गुरु आरती करने का मतलब सिर्फ दिखावा भर होकर, यह तो अपने अंतकरण में, हृदय में उठ रहे भावों की व्याख्या हैं। अपने मन को अहंकार से दूर रखने, मन को पवित्र करने और भगवान तक पहुंचने की सीढ़ी है।

सद्गुरु की आरती

  ये देवासो दिव्येकादशस्थ पृथिव्या मध्येकादश स्थ।

 अप्सुक्षितो महिनैकादश स्थ ते देवासो यज्ञमिमं जुषध्वम्

  अग्निर्देवता व्वातो देवता सूर्य्यो देवता चंद्रमा देवता।

 व्वसवो देवता रुद्द्रा देवता ऽऽदित्या देवता मरुतो देवता।

व्विश्वेदेवा देवता बृहस्पति द्देवतेन्द्रो देवता व्वरुणो देवता।

कर्पूर गौरं करुणावतारं संसार सारं भुजगेन्द्रहारम्

सदावसन्तं हृदयारविन्दे भवं भवानी सहितं नमामि॥

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