जब नारद जी ने दे दिया भगवान विष्णु को श्राप
हमें पूजा में अंतर नहीं करना चाहिए। हमें भगवान के स्वरूपों में भी भेद नहीं करना चाहिए। सभी स्वरूप और अवतार एक ही हैं। भगवान शंकर को ही लें। भगवान शंकर को वे भक्त प्रिय हैं जो भगवान विष्णु का ध्यान करते हैं। इसी तरह भगवान विष्णु को वे प्रिय हैं, जो शिवभक्त हैं। शिव द्रोही भगवान विष्णु को पसंद नहीं हैं। यह भी कम दिलचस्प नहीं हैं कि भगवान विष्णु को सर्वश्रेष्ठ की उपाधि किसी और ने नहीं बल्कि भगवान शंकर ने ही दी। उनको जगत का पालक बनाया। ब्रह्मा जी को सर्जक और खुद वह संहार के देवता बने। यही रुद्रावतार है।
विश्व मोहिनी के मोह में फंसे नारद जो को भान ही नहीं हुआ कि कब उनका रूप वानर जैसा हो गया। उन्होंने नदी में अपना चेहरा देखा..। अरे...यह क्या....मेरा वानर जैसा रूप। वह समझ गए कि यह सब कुछ किसी और ने नहीं वरन विष्णु जी ने किया है। वह विष्णु लोक गए। वहां देखा कि विश्व मोहिनी पास में बैठी हैं। नारद जी गुस्से में तमतमाते हुए विष्णु जी से बोले...तुमने मेरा उपहास उड़ाया है। विश्वमोहिनी के स्वयंवर में मेरा रूप वानर का कर दिया। आपने मेरा ही नहीं बल्कि ब्राह्मण कुल का अपमान किया है। मैं आपको श्राप देता हूं कि जिस तरह मैं पत्नी के वियोग में रहा, आप भी पत्नी के वियोग में रहोगे। आपने मेरा वानर रूप बनाया है, लेकिन यह वानर आपकी रक्षा करेंगे। इसी शाप के वशीभूत होकर भगवान विष्णु को त्रेता में राम के रूप में धरती पर आना पड़ा। सीता के वियोग में वन-वन भटकना पड़ा। हनुमान जी और उनकी वानर सेना ने उनका साथ दिया।
श्राप देकर पछताए नारद
भगवान विष्णु को नारद जी ने श्राप दिया तो विष्णु जी मुस्कराने लगे। उन्होंने मोह माया का आवरण हटा दिया। यह क्या....। नारद जी फूट-फूट कर रोने लगे। भगवान विष्णु के कदमों में सिर नवाया। हे प्रभु, यह आपकी कैसी लीला है। आप तो जगत के पालक हैं। मेरे आराध्य हैं। मैंने आपको ही शाप दे दिया। मुझे क्षमा करें। मैंने अज्ञानतावश और क्रोधवश यह श्राप दे दिया। भगवान विष्णु बोले, मेरी ही मोहमाया से तुमको यह कष्ट हुआ है। लेकिन दोष तो कुछ तुम्हारा भी है।
शिव द्रोही विष्णु जी को पसंद नहीं
हम सामान्यतया देवताओं और भगवद्पूजा में भेद करते हैं। लेकिन विष्णु जी ने नारद जी से जो कहा, वह महत्वपूर्ण है। विष्णु जी बोले, नारद तुम्हारा दोष यह है कि तुम भगवान शंकर से विमुख हुए। तुम अहंकार के वशीभूत हो गए। तुमने यह कैसे मान लिया कि तुमने ही कामदेव को परास्त किया। कामदेव को तुम परास्त भी नहीं कर सकते थे। यह सब शंकर लीला थी। शंकर जी के उस स्थान का प्रताप था, जहां शंकरजी ने कामदेव को भस्म किया था। जो शंकर जी को भजते हैं, वही मुझे भी प्रिय हैं। शंकरजी ने ही मुझे सर्वश्रेष्ठ बनाया है। इतना कहते हुए, भगवान विष्णु ने नारद जी को सारे पापों से मुक्त कर दिया। नारद जी के श्राप के कारण ही शिव गणों को भी असुर योनि में जन्म लेना पड़ा लेकिन श्राप से थोड़े उऋण होकर वह शिवभक्त हुए।
शिव जी की शिक्षा
-क्रोध पर नियंत्रण करना चाहिए। क्रोध में विवेक शून्य हो जाता है।
-कब कहां क्या बोलना है, इसका ध्यान रखना चाहिए।
-स्थान का विशेष महत्व होता है। हर स्थान की अपनी महत्वता होती है।
-अपनी गलती का पश्चाताप कर लेना चाहिए, जैसा नारद जी ने किया
-ईश्वरीय आराधना में भेद-विभेद नहीं करना चाहिए। वैसे भी, शंकर जी सच्चिदानंद, परब्रह्म, निर्गुण, सत्व, रज और तम से दूर हैं।
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