पितृ पक्ष

श्राद्ध कर्म / पैतृक पक्षअपना लें ये उपाय दूर हो जाएगा पितृ दोष

 यह पक्ष 15 िनों का होता है। जो ि भाद्रपद की पूर्णिमा से शुरू होता है और अश्विन की अमावस्या को समाप् होता है। एस्ट्रॉलजर प्रमोद पांडेय कहते हैं ि अगर कोई व्यक्ति पितृ दोष से पीड़ित हो तो उसे पितृ पक्ष के दौरान यहां बताए गये उपायों को अपनाना चाहिए। मान्यता है ि ये उपाय जातक के जीवन से पितृ दोष दूर कर देते हैं। तो आइए इस बारे में िस्तार से जानते हैं ि आखिर िन लोगों के जीवन में होता है ितृ दोष और क्या है इसके िवारण का उपाय?
2/5ऐसे लोगों को होता है ितृ दोष
बता दें ि पितृ दोष को बहुत अशुभ प्रभाव देने वाला माना जाता है। जो भी जातक जीवित अवस्था में अपने माता पिता का अनादर करते है अथवा पिता की मृत्यु के पश्चात जो संतान अपने पिता का श्राद्ध नहीं करता हैं या सर्प हत्या या किसी निरपराध की हत्या करता है तो अगले जन्म में उसकी कुण्डली में पितृदोष लग जाता है। ऐसे में जातक के जीवन में संतान संबंधी, कोर्ट-कचेहरी, पारिवारिक जीवन में कलह और मानसिक शांति बनी ही रहती है। साथ ही अपनों से भी धोखा िलता है।
अगर ितृ पक्ष में ये उपाय कर िए जाएं तो िलता है उनका आशीर्वाद
3/5प्रत्येक अमावस्या के िन कर लें ये उपाय
पितृ दोष दूर करने के िए प्रत्येक अमावस्या को गाय को पांच फल खिलाने चाहिए।इसके अलावा बबूल के पेड़ पर संध्या के समय भोजन रखने से भी पित्तर प्रसन्न होते है। इसलिए ियमित रूप से हर अमावस्या पर यह उपाय जरूर करना चाहिए। साथ ही एक ब्राह्मण को भोजन कराने  दक्षिणा-वस्त्र भी भेंट करने चाहिए। ऐसा करने से भी पितृ दोष कम होता है। 4/5ज्ञात-अज्ञात पूर्वजों के प्रति रखें यह भाव|
पितृ दोष से राहत पाने के िए अपने ज्ञात-अज्ञात और पूर्वजों के प्रति ईश्वर उपासना के बाद ियमित कृतज्ञता का भाव रखना चाहिए। इसके अलावा उनसे जाने-अनजाने में की गयी भूलों की क्षमा मांगें। ऐसा करने से पूर्वज प्रसन् होते हैं और ितृ दोष दूर होते हैं। 
5/5ये उपाय भी हैं बड़े काम के
पितृ दोष दूर करने के िए जातक को प्रतिदिन शिवलिंग पर जल चढ़ाकर महामृत्युंजय का जाप करना चाहिए। इसके अलावा देवी काली की नियमित उपासना करें। मां की कृपा से पितृ दोष दूर हो जाता है। भोजन बनने पर सर्वप्रथम पितरों के नाम के खाने की थाली निकालकर गाय को खिलाने से उस घर पर पित्तरों का सदैव आशीर्वाद रहता है। घर के मुखिया को भी चाहिए कि वह भी अपनी थाली से पहला ग्रास पितरों को नमन करते हुये कौओं के लिये अलग निकालकर उसे खिला दें। 

पितृ पक्ष

आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से लेकर अमावस्या पंद्रह दिन पितृपक्ष (पितृ = पिता) के नाम से विख्यात है। इन पंद्रह दिनों में लोग अपने पितरों (पूर्वजों) को जल देते हैं तथा उनकी मृत्युतिथि पर पार्वण श्राद्ध करते हैं। पिता-माता आदि पारिवारिक मनुष्यों की मृत्यु के पश्चात्उनकी तृप्ति के लिए श्रद्धापूर्वक किए जाने वाले कर्म को पितृ श्राद्ध कहते हैं।

श्रद्धया इदं श्राद्धम् (जो श्रद्धा से किया जाये, वह श्राद्ध है।) भावार्थ यह है कि प्रेत और पितर के निमित्त, उनकी आत्मा की तृप्ति के लिए श्रद्धापूर्वक जो अर्पित किया जाए वही श्राद्ध है।

पितृ पक्ष
द्वारा देखा गया
हिंदुओं
प्रकार
हिंदू
समारोह
16 चंद्र दिन
पर्व
श्राद्ध: अपने पूर्वजों को श्रद्धांजलि अर्पित करना, विशेष रूप से भोजन प्रसाद के द्वारा
शुरू करना
भाद्रपद पूर्णिमा का दिन
समाप्त होता है
सर्वपितृ अमावस्या : अमावस्या
दिनांक
सितंबर / अक्टूबर
आवृत्ति
वार्षिक
से संबंधित
गालुंगन, मृतकों की वंदना

हिन्दू धर्म में माता-पिता की सेवा को सबसे बड़ी पूजा माना गया है। इसलिए हिंदू धर्म शास्त्रों में पितरों का उद्धार करने के लिए पुत्र की अनिवार्यता मानी गई हैं। जन्मदाता माता-पिता को मृत्यु-उपरांत लोग विस्मृत कर दें, इसलिए उनका श्राद्ध करने का विशेष विधान बताया गया है। भाद्रपद पूर्णिमा से आश्विन कृष्णपक्ष अमावस्या तक के सोलह दिनों को पितृपक्ष कहते हैं जिसमे हम अपने पूर्वजों की सेवा करते हैं।

आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से लेकर अमावस्या तक ब्रह्माण्ड की ऊर्जा तथा उस उर्जा के साथ पितृप्राण पृथ्वी पर व्याप्त रहता है। धार्मिक ग्रंथों में मृत्यु के बाद आत्मा की स्थिति का बड़ा सुन्दर और वैज्ञानिक विवेचन भी मिलता है। मृत्यु के बाद दशगात्र और षोडशी-सपिण्डन तक मृत व्यक्ति की प्रेत संज्ञा रहती है। पुराणों के अनुसार वह सूक्ष्म शरीर जो आत्मा भौतिक शरीर छोड़ने पर धारण करती है प्रेत होती है। प्रिय के अतिरेक की अवस्था "प्रेत" है क्यों की आत्मा जो सूक्ष्म शरीर धारण करती है तब भी उसके अन्दर मोह, माया भूख और प्यास का अतिरेक होता है। सपिण्डन के बाद वह प्रेत, पितरों में सम्मिलित हो जाता है।

पितृपक्ष भर में जो तर्पण किया जाता है उससे वह पितृप्राण स्वयं आप्यापित होता है। पुत्र या उसके नाम से उसका परिवार जो यव (जौ) तथा चावल का पिण्ड देता है, उसमें से अंश लेकर वह अम्भप्राण का ऋण चुका देता है। ठीक आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से वह चक्र उर्ध्वमुख होने लगता है। 15 दिन अपना-अपना भाग लेकर शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से पितर उसी ब्रह्मांडीय उर्जा के साथ वापस चले जाते हैं। इसलिए इसको पितृपक्ष कहते हैं और इसी पक्ष में श्राद्ध करने से पितरों को प्राप्त होता है।

पुराणों में कई कथाएँ इस उपलक्ष्य को लेकर हैं जिसमें कर्ण के पुनर्जन्म की कथा काफी प्रचलित है। एवं हिन्दू धर्म में सर्वमान्य श्री रामचरित में भी श्री राम के द्वारा श्री दशरथ और जटायु को गोदावरी नदी पर जलांजलि देने का उल्लेख है एवं भरत जी के द्वारा दशरथ हेतु दशगात्र विधान का उल्लेख भरत कीन्हि दशगात्र विधाना तुलसी रामायण में हुआ है।

भारतीय धर्मग्रंथों के अनुसार मनुष्य पर तीन प्रकार के ऋण प्रमुख माने गए हैं- पितृ ऋण, देव ऋण तथा ऋषि ऋण। इनमें पितृ ऋण सर्वोपरि है। पितृ ऋण में पिता के अतिरिक्त माता तथा वे सब बुजुर्ग भी सम्मिलित हैं, जिन्होंने हमें अपना जीवन धारण करने तथा उसका विकास करने में सहयोग दिया।

पितृपक्ष में हिन्दू लोग मन कर्म एवं वाणी से संयम का जीवन जीते हैं; पितरों को स्मरण करके जल चढाते हैं; निर्धनों एवं ब्राह्मणों को दान देते हैं। पितृपक्ष में प्रत्येक परिवार में मृत माता-पिता का श्राद्ध किया जाता है, परंतु गया श्राद्ध का विशेष महत्व है। वैसे तो इसका भी शास्त्रीय समय निश्चित है, परंतुगया सर्वकालेषु पिण्डं दधाद्विपक्षणंकहकर सदैव पिंडदान करने की अनुमति दे दी गई है।

एकैकस्य तिलैर्मिश्रांस्त्रींस्त्रीन् दद्याज्जलाज्जलीन्। यावज्जीवकृतं पापं तत्क्षणादेव नश्यति।

अर्थात् जो अपने पितरों को तिल-मिश्रित जल की तीन-तीन अंजलियाँ प्रदान करते हैं, उनके जन्म से तर्पण के दिन तक के पापों का नाश हो जाता है। हमारे हिंदू धर्म-दर्शन के अनुसार जिस प्रकार जिसका जन्म हुआ है, उसकी मृत्यु भी निश्चित है; उसी प्रकार जिसकी मृत्यु हुई है, उसका जन्म भी निश्चित है। ऐसे कुछ विरले ही होते हैं जिन्हें मोक्ष प्राप्ति हो जाती है। पितृपक्ष में तीन पीढ़ियों तक के पिता पक्ष के तथा तीन पीढ़ियों तक के माता पक्ष के पूर्वजों के लिए तर्पण किया जाता हैं। इन्हीं को पितर कहते हैं। दिव्य पितृ तर्पण, देव तर्पण, ऋषि तर्पण और दिव्य मनुष्य तर्पण के पश्चात् ही स्व-पितृ तर्पण किया जाता है। भाद्रपद पूर्णिमा से आश्विन कृष्णपक्ष अमावस्या तक के सोलह दिनों को पितृपक्ष कहते हैं। जिस तिथि को माता-पिता का देहांत होता है, उसी तिथी को पितृपक्ष में उनका श्राद्ध किया जाता है। शास्त्रों के अनुसार पितृपक्ष में अपने पितरों के निमित्त जो अपनी शक्ति सामर्थ्य के अनुरूप शास्त्र विधि से श्रद्धापूर्वक श्राद्ध करता है, उसके सकल मनोरथ सिद्ध होते हैं और घर-परिवार, व्यवसाय तथा आजीविका में हमेशा उन्नति होती है। पितृ दोष के अनेक कारण होते हैं। परिवार में किसी की अकाल मृत्यु होने से, अपने माता-पिता आदि सम्मानीय जनों का अपमान करने से, मरने के बाद माता-पिता का उचित ढंग से क्रियाकर्म और श्राद्ध नहीं करने से, उनके निमित्त वार्षिक श्राद्ध आदि करने से पितरों को दोष लगता है। इसके फलस्वरूप परिवार में अशांति, वंश-वृद्धि में रूकावट, आकस्मिक बीमारी, संकट, धन में बरकत होना, सारी सुख सुविधाएँ होते भी मन असन्तुष्ट रहना आदि पितृ दोष हो सकते हैं। यदि परिवार के किसी सदस्य की अकाल मृत्यु हुई हो तो पितृ दोष के निवारण के लिए शास्त्रीय विधि के अनुसार उसकी आत्म शांति के लिए किसी पवित्र तीर्थ स्थान पर श्राद्ध करवाएँ। अपने माता-पिता तथा अन्य ज्येष्ठ जनों का अपमान करें। प्रतिवर्ष पितृपक्ष में अपने पूर्वजों का श्राद्ध, तर्पण अवश्य करें। यदि इन सभी क्रियाओं को करने के पश्चात् पितृ दोष से मुक्ति होती हो तो ऐसी स्थिति में किसी सुयोग्य कर्मनिष्ठ विद्वान ब्राह्मण से श्रीमद् भागवत् पुराण की कथा करवायें। वैसे श्रीमद् भागवत् पुराण की कथा कोई भी श्रद्धालु पुरुष अपने पितरों की आत्मा की शांति के लिए करवा सकता है। इससे विशेष पुण्यफल की प्राप्ति होती है।

मत्स्य पुराण में तीन प्रकार के श्राद्ध प्रमुख बताये गए है। त्रिविधं श्राद्ध मुच्यते के अनुसार मत्स्य पुराण में तीन प्रकार के श्राद्ध बतलाए गए है, जिन्हें नित्य, नैमित्तिक एवं काम्य श्राद्ध कहते हैं।

यमस्मृति में पांच प्रकार के श्राद्धों का वर्णन मिलता है। जिन्हें नित्य, नैमित्तिक, काम्य, वृद्धि और पार्वण के नाम से श्राद्ध है।

नित्य श्राद्ध - प्रतिदिन किए जानें वाले श्राद्ध को नित्य श्राद्ध कहते हैं। इस श्राद्ध में विश्वेदेव को स्थापित नहीं किया जाता। यह श्राद्ध में केवल जल से भी इस श्राद्ध को सम्पन्न किया जा सकता है।

नैमित्तिक श्राद्ध - किसी को निमित्त बनाकर जो श्राद्ध किया जाता है, उसे नैमित्तिक श्राद्ध कहते हैं। इसे एकोद्दिष्ट के नाम से भी जाना जाता है। एकोद्दिष्ट का मतलब किसी एक को निमित्त मानकर किए जाने वाला श्राद्ध जैसे किसी की मृत्यु हो जाने पर दशाह, एकादशाह आदि एकोद्दिष्ट श्राद्ध के अन्तर्गत आता है। इसमें भी विश्वेदेवोंको स्थापित नहीं किया जाता।

काम्य श्राद्ध - किसी कामना की पूर्ति के निमित्त जो श्राद्ध किया जाता है। वह काम्य श्राद्ध के अन्तर्गत आता है।

वृद्धि श्राद्ध - किसी प्रकार की वृद्धि में जैसे पुत्र जन्म, वास्तु प्रवेश, विवाहादि प्रत्येक मांगलिक प्रसंग में भी पितरों की प्रसन्नता हेतु जो श्राद्ध होता है उसे वृद्धि श्राद्ध कहते हैं। इसे नान्दीश्राद्ध या नान्दीमुखश्राद्ध के नाम भी जाना जाता है, यह एक प्रकार का कर्म कार्य होता है। दैनंदिनी जीवन में देव-ऋषि-पित्र तर्पण भी किया जाता है।

पार्वण श्राद्ध - पार्वण श्राद्ध पर्व से सम्बन्धित होता है। किसी पर्व जैसे पितृपक्ष, अमावास्या या पर्व की तिथि आदि पर किया जाने वाला श्राद्ध पार्वण श्राद्ध कहलाता है। यह श्राद्ध विश्वेदेवसहित होता है।

सपिण्डनश्राद्ध - सपिण्डनशब्द का अभिप्राय पिण्डों को मिलाना। पितर में ले जाने की प्रक्रिया ही सपिण्डनहै। प्रेत पिण्ड का पितृ पिण्डों में सम्मेलन कराया जाता है। इसे ही सपिण्डनश्राद्ध कहते हैं।

गोष्ठी श्राद्ध - गोष्ठी शब्द का अर्थ समूह होता है। जो श्राद्ध सामूहिक रूप से या समूह में सम्पन्न किए जाते हैं। उसे गोष्ठी श्राद्ध कहते हैं।

शुद्धयर्थश्राद्ध - शुद्धि के निमित्त जो श्राद्ध किए जाते हैं। उसे शुद्धयर्थश्राद्ध कहते हैं। जैसे शुद्धि हेतु ब्राह्मण भोजन कराना चाहिए।

कर्मागश्राद्ध - कर्मागका सीधा साधा अर्थ कर्म का अंग होता है, अर्थात् किसी प्रधान कर्म के अंग के रूप में जो श्राद्ध सम्पन्न किए जाते हैं। उसे कर्मागश्राद्ध कहते हैं।

यात्रार्थश्राद्ध - यात्रा के उद्देश्य से किया जाने वाला श्राद्ध यात्रार्थश्राद्ध कहलाता है। जैसे- तीर्थ में जाने के उद्देश्य से या देशान्तर जाने के उद्देश्य से जिस श्राद्ध को सम्पन्न कराना चाहिए वह यात्रार्थश्राद्ध ही है। इसे घृतश्राद्ध भी कहा जाता है।

पुष्ट्यर्थश्राद्ध - पुष्टि के निमित्त जो श्राद्ध सम्पन्न हो, जैसे शारीरिक एवं आर्थिक उन्नति के लिए किया जाना वाला श्राद्ध पुष्ट्यर्थश्राद्ध कहलाता है।

धर्मसिन्धु के अनुसार श्राद्ध के ९६ अवसर बतलाए गए हैं। एक वर्ष की अमावास्याएं'(12) पुणादितिथियां (4),'मन्वादि तिथियां (14) संक्रान्तियां (12) वैधृति योग (12), व्यतिपात योग (12) पितृपक्ष (15), अष्टकाश्राद्ध (5) अन्वष्टका (5) तथा पूर्वेद्यु:(5) कुल मिलाकर श्राद्ध के यह ९६ अवसर प्राप्त होते हैं।'पितरों की संतुष्टि हेतु विभिन्न पित्र-कर्म का विधान है।

पुराणोक्त पद्धति से निम्नांकित कर्म किए जाते हैं :- एकोदिष्ट श्राद्ध, पार्वण श्राद्ध, नाग बलि कर्म, नारायण बलि कर्म, त्रिपिण्डी श्राद्ध, महालय श्राद्ध पक्ष में श्राद्ध कर्म उपरोक्त कर्मों हेतु विभिन्न संप्रदायों में विभिन्न प्रचलित परिपाटियाँ चली रही हैं। अपनी कुल-परंपरा के अनुसार पितरों की तृप्ति हेतु श्राद्ध कर्म अवश्य करना चाहिए। कैसे करें श्राद्ध कर्म महालय श्राद्ध पक्ष में पितरों के निमित्त घर में क्या कर्म करना चाहिए।

मान्य स्थान

गया

जब बात आती है श्राद्ध कर्म की तो बिहार स्थित गया का नाम बड़ी प्रमुखता आदर से लिया जाता है। गया समूचे भारत वर्ष में हीं नहीं सम्पूर्ण विश्व में दो स्थान श्राद्ध तर्पण हेतु बहुत प्रसिद्द है। वह दो स्थान है बोध गया और विष्णुपद मन्दिरविष्णुपद मंदिर वह स्थान जहां माना जाता है कि स्वयं भगवान विष्णु के चरण उपस्थित है, जिसकी पूजा करने के लिए लोग देश के कोने-कोने से आते हैं। गया में जो दूसरा सबसे प्रमुख स्थान है जिसके लिए लोग दूर दूर से आते है वह स्थान एक नदी है, उसका नाम "फल्गु नदी" है। ऐसा माना जाता है कि मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम ने स्वयं इस स्थान पर अपने पिता राजा दशरथ का पिंड दान किया था। तब से यह माना जाने लगा की इस स्थान पर आकर कोई भी व्यक्ति अपने पितरो के निमित्त पिंड दान करेगा तो उसके पितृ उससे तृप्त रहेंगे और वह व्यक्ति अपने पितृऋण से उरिण हो जायेगा | इस स्थान का नामगयाइसलिए रखा गया क्योंकि भगवान विष्णु ने यहीं के धरती पर असुर गयासुर का वध किया था। तब से इस स्थान का नाम भारत के प्रमुख तीर्थस्थानो में आता है और बड़ी ही श्रद्धा और आदर से "गया जी" बोला जाता है।

श्राद्ध 2021: पितृ पक्ष में श्राद्ध की तिथियां विवरण

20 सितंबर 2021, सोमवार: पूर्णिमा श्राद्ध 21 सितंबर 2021, मंगलवार: प्रतिपदा श्राद्ध 22 सितंबर 2021, बुधवार: द्वितीया श्राद्ध 23 सितंबर 2021, बृहस्पतिवार: तृतीया श्राद्ध 24 सितंबर 2021, शुक्रवार: चतुर्थी श्राद्ध 25 सितंबर 2021, शनिवार: पंचमी श्राद्ध 27 सितंबर 2021, सोमवार: षष्ठी श्राद्ध 28 सितंबर 2021, मंगलवार: सप्तमी श्राद्ध 29 सितंबर 2021, बुधवार: अष्टमी श्राद्ध 30 सितंबर 2021, बृहस्पतिवार: नवमी श्राद्ध 1 अक्तूबर 2021, शुक्रवार: दशमी श्राद्ध 2 अक्तूबर 2021, शनिवार: एकादशी श्राद्ध 3 अक्तूबर 2021, रविवार: द्वादशी, सन्यासियों का श्राद्ध, मघा श्राद्ध 4 अक्तूबर 2021, सोमवार: त्रयोदशी श्राद्ध 5 अक्तूबर 2021, मंगलवार: चतुर्दशी श्राद्ध 6 अक्तूबर 2021, बुधवार: अमावस्या श्राद्ध

20 सितंबर 2021, सोमवार: पूर्णिमा श्राद्ध 21 सितंबर 2021, मंगलवार: प्रतिपदा श्राद्ध 22 सितंबर 2021, बुधवार: द्वितीया श्राद्ध 23 सितंबर 2021, बृहस्पतिवार: तृतीया श्राद्ध 24 सितंबर 2021, शुक्रवार: चतुर्थी श्राद्ध 25 सितंबर 2021, शनिवार: पंचमी श्राद्ध 27 सितंबर 2021, सोमवार: षष्ठी श्राद्ध 28 सितंबर 2021, मंगलवार: सप्तमी श्राद्ध 29 सितंबर 2021, बुधवार: अष्टमी श्राद्ध 30 सितंबर 2021, बृहस्पतिवार: नवमी श्राद्ध 1 अक्तूबर 2021, शुक्रवार: दशमी श्राद्ध 2 अक्तूबर 2021, शनिवार: एकादशी श्राद्ध 3 अक्तूबर 2021, रविवार: द्वादशी, सन्यासियों का श्राद्ध, मघा श्राद्ध 4 अक्तूबर 2021, सोमवार: त्रयोदशी श्राद्ध 5 अक्तूबर 2021, मंगलवार: चतुर्दशी श्राद्ध 6 अक्तूबर 2021, बुधवार: अमावस्या श्राद्ध

20 सितंबर 2021, सोमवार: पूर्णिमा श्राद्ध 21 सितंबर 2021, मंगलवार: प्रतिपदा श्राद्ध 22 सितंबर 2021, बुधवार: द्वितीया श्राद्ध 23 सितंबर 2021, बृहस्पतिवार: तृतीया श्राद्ध 24 सितंबर 2021, शुक्रवार: चतुर्थी श्राद्ध 25 सितंबर 2021, शनिवार: पंचमी श्राद्ध 27 सितंबर 2021, सोमवार: षष्ठी श्राद्ध 28 सितंबर 2021, मंगलवार: सप्तमी श्राद्ध 29 सितंबर 2021, बुधवार: अष्टमी श्राद्ध 30 सितंबर 2021, बृहस्पतिवार: नवमी श्राद्ध 1 अक्तूबर 2021, शुक्रवार: दशमी श्राद्ध 2 अक्तूबर 2021, शनिवार: एकादशी श्राद्ध 3 अक्तूबर 2021, रविवार: द्वादशी, सन्यासियों का श्राद्ध, मघा श्राद्ध 4 अक्तूबर 2021, सोमवार: त्रयोदशी श्राद्ध 5 अक्तूबर 2021, मंगलवार: चतुर्दशी श्राद्ध 6 अक्तूबर 2021, बुधवार: अमावस्या श्राद्ध

20 सितंबर 2021, सोमवार: पूर्णिमा श्राद्ध 21 सितंबर 2021, मंगलवार: प्रतिपदा श्राद्ध 22 सितंबर 2021, बुधवार: द्वितीया श्राद्ध 23 सितंबर 2021, बृहस्पतिवार: तृतीया श्राद्ध 24 सितंबर 2021, शुक्रवार: चतुर्थी श्राद्ध 25 सितंबर 2021, शनिवार: पंचमी श्राद्ध 27 सितंबर 2021, सोमवार: षष्ठी श्राद्ध 28 सितंबर 2021, मंगलवार: सप्तमी श्राद्ध 29 सितंबर 2021, बुधवार: अष्टमी श्राद्ध 30 सितंबर 2021, बृहस्पतिवार: नवमी श्राद्ध 1 अक्तूबर 2021, शुक्रवार: दशमी श्राद्ध 2 अक्तूबर 2021, शनिवार: एकादशी श्राद्ध 3 अक्तूबर 2021, रविवार: द्वादशी, सन्यासियों का श्राद्ध, मघा श्राद्ध 4 अक्तूबर 2021, सोमवार: त्रयोदशी श्राद्ध 5 अक्तूबर 2021, मंगलवार: चतुर्दशी श्राद्ध 6 अक्तूबर 2021, बुधवार: अमावस्या श्राद्ध

20 सितंबर 2021, सोमवार: पूर्णिमा श्राद्ध 21 सितंबर 2021, मंगलवार: प्रतिपदा श्राद्ध 22 सितंबर 2021, बुधवार: द्वितीया श्राद्ध 23 सितंबर 2021, बृहस्पतिवार: तृतीया श्राद्ध 24 सितंबर 2021, शुक्रवार: चतुर्थी श्राद्ध 25 सितंबर 2021, शनिवार: पंचमी श्राद्ध 27 सितंबर 2021, सोमवार: षष्ठी श्राद्ध 28 सितंबर 2021, मंगलवार: सप्तमी श्राद्ध 29 सितंबर 2021, बुधवार: अष्टमी श्राद्ध 30 सितंबर 2021, बृहस्पतिवार: नवमी श्राद्ध 1 अक्तूबर 2021, शुक्रवार: दशमी श्राद्ध 2 अक्तूबर 2021, शनिवार: एकादशी श्राद्ध 3 अक्तूबर 2021, रविवार: द्वादशी, सन्यासियों का श्राद्ध, मघा श्राद्ध 4 अक्तूबर 2021, सोमवार: त्रयोदशी श्राद्ध 5 अक्तूबर 2021, मंगलवार: चतुर्दशी श्राद्ध 6 अक्तूबर 2021, बुधवार: अमावस्या श्राद्ध

Sr No

श्राद्ध 2021: पितृ पक्ष में श्राद्ध की तिथियां विवरण

1

20 सितंबर 2021, सोमवार: पूर्णिमा श्राद्ध

2

21 सितंबर 2021, मंगलवार: प्रतिपदा श्राद्ध

3

22 सितंबर 2021, बुधवार: द्वितीया श्राद्ध

4

23 सितंबर 2021, बृहस्पतिवार: तृतीया श्राद्ध

5

24 सितंबर 2021, शुक्रवार: चतुर्थी श्राद्ध

6

25 सितंबर 2021, शनिवार: पंचमी श्राद्ध

7

27 सितंबर 2021, सोमवार: षष्ठी श्राद्ध

8

28 सितंबर 2021, मंगलवार: सप्तमी श्राद्ध

9

29 सितंबर 2021, बुधवार: अष्टमी श्राद्ध

10

30 सितंबर 2021, बृहस्पतिवार: नवमी श्राद्ध

11

1 अक्तूबर 2021, शुक्रवार: दशमी श्राद्ध

12

2 अक्तूबर 2021, शनिवार: एकादशी श्राद्ध

13

3 अक्तूबर 2021, रविवार: द्वादशी, सन्यासियों का श्राद्ध, मघा श्राद्ध

14

4 अक्तूबर 2021, सोमवार: त्रयोदशी श्राद्ध

15

5 अक्तूबर 2021, मंगलवार: चतुर्दशी श्राद्ध

16

6 अक्तूबर 2021, बुधवार: अमावस्या श्राद्ध

20 सितंबर 2021, सोमवार: पूर्णिमा श्राद्ध 21 सितंबर 2021, मंगलवार: प्रतिपदा श्राद्ध 22 सितंबर 2021, बुधवार: द्वितीया श्राद्ध 23 सितंबर 2021, बृहस्पतिवार: तृतीया श्राद्ध 24 सितंबर 2021, शुक्रवार: चतुर्थी श्राद्ध 25 सितंबर 2021, शनिवार: पंचमी श्राद्ध 27 सितंबर 2021, सोमवार: षष्ठी श्राद्ध 28 सितंबर 2021, मंगलवार: सप्तमी श्राद्ध 29 सितंबर 2021, बुधवार: अष्टमी श्राद्ध 30 सितंबर 2021, बृहस्पतिवार: नवमी श्राद्ध 1 अक्तूबर 2021, शुक्रवार: दशमी श्राद्ध 2 अक्तूबर 2021, शनिवार: एकादशी श्राद्ध 3 अक्तूबर 2021, रविवार: द्वादशी, सन्यासियों का श्राद्ध, मघा श्राद्ध 4 अक्तूबर 2021, सोमवार: त्रयोदशी श्राद्ध 5 अक्तूबर 2021, मंगलवार: चतुर्दशी श्राद्ध 6 अक्तूबर 2021, बुधवार: अमावस्या श्राद्ध

20 सितंबर 2021, सोमवार: पूर्णिमा श्राद्ध 21 सितंबर 2021, मंगलवार: प्रतिपदा श्राद्ध 22 सितंबर 2021, बुधवार: द्वितीया श्राद्ध 23 सितंबर 2021, बृहस्पतिवार: तृतीया श्राद्ध 24 सितंबर 2021, शुक्रवार: चतुर्थी श्राद्ध 25 सितंबर 2021, शनिवार: पंचमी श्राद्ध 27 सितंबर 2021, सोमवार: षष्ठी श्राद्ध 28 सितंबर 2021, मंगलवार: सप्तमी श्राद्ध 29 सितंबर 2021, बुधवार: अष्टमी श्राद्ध 30 सितंबर 2021, बृहस्पतिवार: नवमी श्राद्ध 1 अक्तूबर 2021, शुक्रवार: दशमी श्राद्ध 2 अक्तूबर 2021, शनिवार: एकादशी श्राद्ध 3 अक्तूबर 2021, रविवार: द्वादशी, सन्यासियों का श्राद्ध, मघा श्राद्ध 4 अक्तूबर 2021, सोमवार: त्रयोदशी श्राद्ध 5 अक्तूबर 2021, मंगलवार: चतुर्दशी श्राद्ध 6 अक्तूबर 2021, बुधवार: अमावस्या श्राद् 

किसके लिए और किसके लिए

यह आवश्यक है कि श्राद्ध पुत्र-आमतौर पर सबसे बड़े- या परिवार की पैतृक शाखा के पुरुष रिश्तेदार द्वारा किया जाए, जो पिछली तीन पीढ़ियों तक सीमित हो। हालाँकि, सर्वपितृ अमावस्या या मातामहा पर, बेटी का बेटा अपने परिवार के मातृ पक्ष के लिए श्राद्ध दे सकता है यदि उसकी माँ के परिवार में कोई पुरुष उत्तराधिकारी अनुपस्थित है। कुछ जातियाँ केवल एक पीढ़ी के लिए श्राद्ध करती हैं। संस्कार करने से पहले, पुरुष को एक पवित्र धागा समारोह का अनुभव करना चाहिए था। चूंकि समारोह का मृत्यु से संबंध होने के कारण अशुभ माना जाता है, कच्छ के शाही परिवार, राजा या सिंहासन के वारिसों को श्राद्ध करने से मना किया जाता है।

भोजन

पूर्वजों को दिया जाने वाला भोजन आमतौर पर चांदी या तांबे के बर्तन में पकाया जाता है और आमतौर पर केले के पत्ते या सूखे पत्तों से बने प्याले पर रखा जाता है। भोजन में खीर (एक प्रकार का मीठा चावल और दूध), लपसी (गेहूं के दानों से बना एक मीठा दलिया), चावल, दाल (दाल), स्प्रिंग बीन (ग्वार) की सब्जी और एक पीली लौकी (कद्दू) शामिल होनी चाहिए। 

श्राद्ध के संस्कार

जो पुरुष श्राद्ध करता है, उसे पहले ही शुद्धिकरण कर लेना चाहिए और धोती पहनने की अपेक्षा की जाती है। वह दरभा घास की अंगूठी पहनते हैं। फिर पूर्वजों को अंगूठी में निवास करने के लिए आमंत्रित किया जाता है। श्राद्ध आमतौर पर नंगे सीने में किया जाता है, क्योंकि समारोह के दौरान उनके द्वारा पहने गए पवित्र धागे की स्थिति को कई बार बदलना पड़ता है। श्राद्ध में पिंड दान शामिल है, जो पिंडों के पूर्वजों (पके हुए चावल और जौ के आटे के गोले घी और काले तिल के साथ मिश्रित) के लिए एक प्रसाद है, जिसमें हाथ से पानी निकलता है। इसके बाद विष्णु (दरभा घास, एक सोने की मूर्ति, या शालिग्राम पत्थर के रूप में) और यम की पूजा की जाती है। भोजन की पेशकश तब बनाई जाती है, विशेष रूप से छत पर समारोह के लिए पकाया जाता है। यदि कोई कौवा आकर भोजन को खा ले तो भेंट स्वीकार मानी जाती है; पक्षी को यम या पूर्वजों की आत्मा का दूत माना जाता है। एक गाय और एक कुत्ते को भी खिलाया जाता है, और ब्राह्मण पुजारियों को भी भोजन कराया जाता है। एक बार पूर्वजों (कौवा) और ब्राह्मणों के खाने के बाद, परिवार के सदस्य दोपहर का भोजन शुरू कर सकते हैं।

अन्य अभ्यास

कुछ परिवार भागवत पुराण और भगवद गीता जैसे धर्मग्रंथों का अनुष्ठान भी करते हैं। अन्य धर्मार्थ हो सकते हैं और पुजारियों को उपहार भेंट कर सकते हैं या पूर्वजों की भलाई के लिए प्रार्थना करने के लिए उन्हें भुगतान कर सकते हैं।

पितृ पक्ष या पितरपख, १६ दिन की वह अवधि (पक्ष/पख) है जिसमें हिन्दू लोग अपने पितरों को श्रद्धापूर्वक स्मरण करते हैं और उनके लिये पिण्डदान करते हैं। इसे 'सोलह श्राद्ध', 'महालय पक्ष', 'अपर पक्ष' आदि नामों से भी जाना जाता है। गीता जी के अध्याय श्लोक २५ के अनुसार पितर पूजने वाले पितरों को, देेव पूजने वाले देवताओं को और परमात्मा को पूजने वाले परमात्मा को प्राप्त होते हैं। अर्थात् मनुष्य को उसी की पूजा करने के लिए कहा है जिसे पाना चाहता है अर्थात समझदार इशारा समझ सकता है कि परमात्मा को पाना ही श्रेष्ठ है। अतः अन्य पूजाएं (देवी-देवता और पितरों की) छोड़ कर सिर्फ परमात्मा की पूजा करें।

पुराण के अनुसार श्राद्ध

हिन्दू धर्म के मार्कण्डेय पुराण (गीता प्रैस गोरखपुर से प्रकाशित पेज 237 पर है, जिसमें मार्कण्डेय पुराण तथा ब्रह्म पुराणांक एक साथ जिल्द किया है) में भी श्राद्ध के विषय मे एक कथा का वर्णन मिलता है जिसमे एक रूची नाम का ब्रह्मचारी साधक वेदों के अनुसार साधना कर रहा था। वह जब 40 वर्ष का हुआ तब उसे अपने चार पूर्वज जो मनमाना आचरण शास्त्र विरुद्ध साधना करके पितर बने हुए थे तथा कष्ट भोग रहे थे, दिखाई दिए।पितरों ने उससे कहा कि बेटा रूची शादी करवा कर हमारे श्राद्ध निकाला करो, हम तो दुःखी हो रहे हैं। इस पर रूची ऋषि बोले कि पित्रामहो वेद में क्रिया या कर्म काण्ड मार्ग (श्राद्ध, पिण्ड भरवाना आदि) को मूर्खों की साधना कहा है। फिर आप मुझे क्यों उस गलत(शास्त्रविधि रहित) रास्ते पर लगा रहे हो। इस पर पितरों ने कहा कि बेटा आपकी बात सत्य है कि वेदों में पितर पूजा, भूत पूजा के साथ साथ देवी देवताओं की पूजा को भी अविद्या की संज्ञा दी है।

विधियां और मान्यताएं

पूर्वज पूजा की प्रथा विश्व के अन्य देशों की भाँति बहुत प्राचीन है। यह प्रथा यहाँ वैदिक काल से प्रचलित रही है। विभिन्न देवी देवताओं को संबोधित वैदिक ऋचाओं में से अनेक पितरों तथा मृत्यु की प्रशस्ति में गाई गई हैं। पितरों का आह्वान किया जाता है कि वे पूजकों (वंशजों) को धन, समृद्धि एवं शक्ति प्रदान करें। पितरों को आराधना में लिखी ऋग्वेद की एक लंबी ऋचा (१०.१४.) में यम तथा वरुण का भी उल्लेख मिलता है। पितरों का विभाजन वर, अवर और मध्यम वर्गों में किया गया है (कृ. १०.१५. एवं यजु. सं. १९४२) संभवत: इस वर्गीकरण का आधार मृत्युक्रम में पितृविशेष का स्थान रहा होगा। ऋग्वेद (१०.१५) के द्वितीय छंद में स्पष्ट उल्लेख है कि सर्वप्रथम और अंतिम दिवंगत पितृ तथा अंतरिक्षवासी पितृ श्रद्धेय हैं। सायण के टीकानुसार श्रोत संस्कार संपन्न करने वाले पितर प्रथम श्रेणी में, स्मृति आदेशों का पालन करने वाले पितर द्वितीय श्रेणी में और इनसे भिन्न कर्म करने वाले पितर अंतिम श्रेणी में रखे जाने चाहिए।

ऐसे तीन विभिन्न लोकों अथवा कार्यक्षेत्रों का विवरण प्राप्त होता है जिनसे होकर मृतात्मा की यात्रा पूर्ण होती है। ऋग्वेद (१०.१६) में अग्नि से अनुनय है कि वह मृतकों को पितृलोक तक पहुँचाने में सहायक हो। अग्नि से ही प्रार्थना की जाती है कि वह वंशजों के दान पितृगणों तक पहुँचाकर मृतात्मा को भीषण रूप में भटकने से रक्षा करें। ऐतरेय ब्राह्मण में अग्नि का उल्लेख उस रज्जु के रूप में किया गया है जिसकी सहायता से मनुष्य स्वर्ग तक पहुँचता है। स्वर्ग के आवास में पितृ चिंतारहित हो परम शक्तिमान् एवं आनंदमय रूप धारण करते हैं। पृथ्वी पर उनके वंशज सुख समृद्धि की प्राप्ति के हेतु पिंडदान देते और पूजापाठ करते हैं। वेदों में पितरों के भयावह रूप की भी कल्पना की गई है। पितरों से प्रार्थना की गई है कि वे अपने वंशजों के निकट आएँ, उनका आसन ग्रहण करें, पूजा स्वीकार करें और उनके क्षुद्र अपराधों से अप्रसन्न हों। उनका आह्वान व्योम में नक्षत्रों के रचयिता के रूप में किया गया है। उनके आशीर्वाद में दिन को जाज्वल्यमान और रजनी को अंधकारमय बताया है। परलोक में दो ही मार्ग हैं : देवयान और पितृयान। पितृगणों से यह भी प्रार्थना है कि देवयान से मर्त्यो की सहायता के लिये अग्रसर हों (वाज. सं. १९.४६)

संहिताओं और ब्राह्मणों की बहुत सी पंक्तियों में मृत्यु के प्रति मिलता है। पहला जन्म साधारण जन्म है। पिता की मृत्यु के उपरांत पुत्र में ओर पुत्र के बाद पौत्र में जीवन की जो निरंतरता बनी रहती है उसे दूसरे प्रकार का जन्म माना गाया है। मृत्युपरांत पुनर्जन्म तीसरे प्रकार का जन्म है। कौशीतकी में ऐसे व्यक्तियों का उल्लेख है जो मृत्यु के पश्चात् चंद्रलोक में जाते हैं और अपने कार्य एवं ज्ञानानुसार वर्षा के माध्यम से पृथ्वी पर कीट पशु, पक्षी अथवा मानव रूप में जन्म लेते हैं। अन्य मृत्क देवयान द्वारा अग्निलोक में चले जाते हैं।

छांदोग्य के अनुसार ज्ञानोपार्जन करने वाले भले व्यक्ति मृत्युपरांत देवयान द्वारा सर्वोच्च ब्राह्मण पद प्राप्त करते हैं। पूजापाठ एवं जनकार्य करने वाले दूसरी श्रेणी के व्यक्ति रजनी और आकाश मार्ग से होते हुए पुन: पृथ्वी पर लौट आते हैं और इसी नक्षत्र में जन्म लेते हैं।

स्मृतियों एवं पुराणों में भी आत्मासंसरण संबंधी विश्वास पाए जाते हैं और इनमें भी पितृर्पण के हेतु श्राद्धसंस्कारों की महत्ता परिलक्षित होती है। मृत्युपरांत पितृ-कल्याण-हेतु पहले दिन दस दान और अगले दस ग्यारह दिन तक अन्य दान दिए जाने चाहिए। इन्हीं दानों की सहायता से मृतात्मा नई काया धारण करती है और अपने कर्मानुसार पुनरावृत्त होती है। पितृपूजा के समय वंशज अपने लिये भी मंगलकामना करते हैं।

प्रथम दस दानों का प्रयोजन मृतकों का अध्यात्मनिर्माण है। मृत्यु के ११वें दिन एकोद्दिष्ट नामक दान दिया जाता है अगले दो मास में प्रत्येक मास एक बार और अगले १२ मासों में प्रत्येक छह मास की समाप्ति पर एक अंतिम दान द्वारा इन संस्कारों की कुल संख्या १६ कर दी जाती है। श्राद्ध संस्कारों के संपन्न हो जाने पर पहला शरीर नष्ट हो जाता है और आगामी अनुभवों के लिये नए शरीर का निर्माण होता है। वेदवर्णित कर्तव्यों में श्राद्धसंस्कारों का विशेष स्थान है। कर्तव्यपरायणता के हित में वंशजों द्वारा इनका पालन आवश्यक है। आज भी प्रत्येक हिंदू इस कर्तव्य का पालन वैदिक रीति के अनुसार करता है।

इस प्रथा के दार्शनिक आधार की पहली मान्यता मनुष्य में आध्यात्मिक तत्व की अमरता है। आत्मा किसी सूक्ष्म शारीरिक आकार में प्रभावाित होती है और इस आकार के माध्यम से ही आत्मा का संसरण संभव है। असंख्य जन्ममरणोपरांत आत्मा पुनरावृत्ति से मुक्त हो जाती है। यद्यपि आत्मा के संसरण का मार्ग पूर्वकर्मों द्वारा निश्चित होता है तथापि वंशजों द्वारा संपन्न श्राद्धक्रियाओं का माहात्म्य भी इसे प्रभावित करता है। बौद्ध धर्म में दो जन्मों के बीच एक अंत:स्थायी अवस्था की कल्पना की गई है जिसमें आत्मा के संसरण का रूप पूर्वकर्मानुसार निर्धारित होता है। पुनर्जन्म में विश्वास हिंदू, बौद्ध तथा जैन तीनों चिंतनप्रणलियों में पाया जाता है। हिंदू दर्शन की चार्वाक पद्धति इस दिशा में अपवादस्वरूप है। अन्यथा पुनर्जन्म एवं पितरों की सत्ता में विश्वास सभी चिंतनप्रणालियों और वर्तमान पढ़ अपढ़ सभी हिंदुओं में समान रूप से पाया जाता है।

मालाबार के नायरों में मृतकों को दान देने की रस्म दाहसंस्कार के अगले दिन प्रारंभ की जाती है और पूरे सप्ताह भर चलती है। उत्तरी भारत की नीची जातियों में मृतकों को भोजन देने की प्रथा प्रचलित है। गोंड जाति में दाहसंस्कार संबंधी रस्मों की अवधि केवल तीन दिन है। इन रस्मों की समाप्ति पर शोककर्ता स्नान और क्षोर द्वारा शुद्ध हो पितरों को दूध और अन्न का तर्पण करते हैं। नेपाल में 'कमो' लोहारों में मृत्यु के ११वें दिन मृतक के संबंधियों के भोज का आयोजन किया जाता है। किंतु भोजन प्रारंभ होने के पूर्व प्रत्येक व्यंजन का थोड़ा थोड़ा अंश एक पत्तल पर निकालकर मृत आत्मा के लिये जंगल में भेज दिया जाता है। पत्तल ले जानेवाला व्यक्ति उसे तब तक दृष्टि से ओझल नहीं होने देता जब तक पत्तल में रखे भोजन पर कोई मक्खी या कीड़ा बैठ जाए। ऐसा होने पर पत्तल को किसी भारी पत्थर से ढक कर वह व्यक्ति अपने साथ लाया भोजन जंगल में ही रख देता है। तदुपरांत वह गाँव में जाकर संबंधियों को मृतात्मा द्वारा उनके दान की स्वीकृति की सूचना देता है और तब भोज प्रारंभ होता है। मक्त ओरांव मृतक के अस्थि अवशेषों को शवस्थान में गाड़कर सुरक्षित रखते हैं। दिवंगत पुरखों को सूअर का मांस और ढेरों चावल भेंट में चढ़ाए जाते हैं और उठते बैठते, भोजन या धूम्रपान के अवसर पर उनका स्मरण किया जाता है। मल पहाड़ियाँ जाति में पूर्वजों की तुलना उन काष्ठस्तंभों से की जाती है जो मकान की छत को सहारा देते हैं। शव को गाड़ते समय मेछ लोग मृतात्मा की तृप्ति के लिये कब्र पर आग जलाकर उसमें भोजन और पेय पदार्थों की आहुति देते हैं। मल पहाड़ियाँ भी अक्टूबर नवंबर मास में कालीपूजा की रात्रि को मृत पुरखों के सम्मान में सूखे सन की बत्तियाँ जलाते हैं। उत्तरी भारत के अन्य भागों में इस प्रकार की रीतियाँ प्रचलित हैं। मिर्जापुर के घासिया पाँच पत्तलों में प्रतिदिन भोजन सजाकर पुरखों को भेंट चढ़ाते हैं और उनसे प्रार्थना करते हैं कि वे उनकी भेंट स्वीकार कर अपने वंशजों और पशुधन पर कृपादृष्टि रखें। कोलों में मृतात्मा को मुर्गे की बलि देते हैं। वे बलिस्थल पर शराब छिड़ककर संतति की सुरक्षा की प्रार्थना करते हैं। राजी लोग सिर, दाढ़ी और मूँछों के बाल मुँडाकर उन्हें पूर्वजों की भेंट स्वरूप कब्र पर छोड़ देते हैं। खानाबदोश और पूर्व अपराधोपजीवी नट कबीले के लोग नदी के तट पर भोजन बनाते हैं और कपड़ा बिछा उसपर मृतात्मा के बैठने की प्रतीक्षा करते हैं। मृतक का निकटतम संबंधी एक कुल्हड़ और धुरी हाथ में लेकर नदी में डुबकी लगाता है। वह तब तक जल से बाहर नहीं आता जब तक सिर पर रखा कुल्हड़ भर जाए। कुल्हड़ को कपड़े पर रख, उसके चारों कोनों का भी ऐसे कुल्हड़ों से दबा दिया जाता है। फिर कुल्हड़ों से घिरे इस कपड़े पर आत्मा की तृप्ति के लिये भोजन रख दिया जाता है।

कुछ भारतीय जातियों में मृतात्मा की भोजन संबंधी आवश्यकता की पूर्ति माता की ओर से संबंधियों को भोज देकर की जाती है। निचले हिमालय की तराई के भोकसा अपनी पुत्रियों के वंशजों को भोज देकर मृतात्मा की शांति की व्यवस्था करते हैं। उड़ीसा के जुआंग और उत्तरी भारत के अन्य कबीले मृतक के मामा को पुजारी का पद देते हैं। गया ओर ऐसे अन्य स्थानों में जहाँ सगे संबंधियों को पिंडदान दिया जाता है, ऐसे अवसरों पर भोजन करने के लिये ब्राह्मणों का एक विशेष वर्ग भी बन गया है। समस्त भारत में आश्विन (अगस्त सितंबर) मास में पितृपक्ष के अवसर पर वंशज पुरखों को पिंडदान देते हैं और पूरे पखवारे निकटतम पवित्र नदी में स्नान करते हैं।

मैसूर के कुरुवारू और नीलगिरि पहाड़ियों के येरुकुल अपने देवताओं के साथ पितरों को भी बलि देते हैं। मुंबई राज्य के ढोर कठकरी तथा अन्य हिंदू कबीले बिना छिले नारियल का पूर्वज मानकर उसकी पूजा करते हैं।






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