हिंदी नाटक और एकांकी/ध्रुवस्वामिनी

नाटक 'ध्रुवस्वामी' एक लघु नाटक है जो मुख्य महिला चरित्र ध्रुवस्वामी के इर्द-गिर्द घूमता है। वह गुप्त वंश की साम्राज्ञी है लेकिन राजा रामगुप्त उस पर ज्यादा ध्यान नहीं देते और वह अन्य महिलाओं में लिप्त रहता है। ... रामगुप्त ने चंद्रगुप्त को धोखे से मारने की कोशिश की, लेकिन इसके बदले उसे मार दिया गया। 

संवेदना के धरातल पर "ध्रुवस्वामिनी" मूलतः यथार्थवादी शैली का नाटक है। अपने समय के सत्यों को यह बौद्धिकता के घसतल पर प्रस्तुत करता है यथार्थवाद के मूल भाव-मानवीय वेदना की अभिव्यक्ति और अत्याचार के विरुद्ध आवाज उठाना-को यह कथ्य और शिल्प दोनों के धरातल पर प्रखरता के साथ प्रकट करता है।

हिंदी नाटक और एकांकी/ध्रुवस्वामिनी

ध्रुवस्वामिनी नाटक में स्त्री अस्मिता की प्रतिष्ठा बताओ!

प्रसाद जी हिन्दी के नि:संदेह अकेले ऐसे लेखक हैं जिन्होंने भारतीय संस्कृति, समृद्धि, शक्ति और औदात्म का आस्वर चित्र प्रस्तुत किया है। कलात्मक उत्कर्ष की दृष्टि से प्रसाद जी के सर्वत्रमुख नाटक तीन हैं : स्कन्दगुप्त, चंद्रगुप्त और ध्रुवस्वामिनी। लेकिन उनकी ख्याति के शिखर पर निश्चय ही ध्रुवस्वामिनी खड़ा है। ध्रुवस्वामिनी जयशंकर प्रसाद का अंतिम नाटक है। इसमें उनके अन्य नाटकों जैसी कविता की भावुकता और संवादों में वैसी दुरूहता नहीं है। अपने जीवंत संवादों और सुगठित कथावस्तु के कारण यह नाटक अत्यंत प्रभावशाली और मनोपयोगीहो गया है। लेकिन इसकी सबसे बड़ी शक्ति प्रसाद जी के उस क्रांतिकारी दृष्टिकोण में निहित है जो इस नाटक के माध्यम से व्यक्त हुआ है और वह यह है कि नारी पुरुष की क्रीत दासी नहीं है। पुरुष यदि क्लीव (नपुंसक), कायर और व्यभिचारी है तो नारी केवल उसके विरुद्ध विद्रोह ही कर सकती है, उसका परित्याग करके अपने प्रिय पुरुष का वरण कर उससे पुनर्विवाह भी कर सकती है। यह बात भारतीय समाज के लिए, खासतौर से उस समय जब यह नाटक लिखा गया था, कल्पना से भी परे थी।

ध्रुवस्वामिनी नाटक में गुप्त साम्राज्य की उस अवस्था का चित्रण हुआ है, जब शासन की बागडोर एक कायर, क्लीव और व्यभिचारी राजा रामगुप्त के हाथों में है। हालांकि, युवराज चंद्रगुप्तहै लेकिन अपने ज्येष्ठ भ्राता रामगुप्त के लिए त्याग कर उसे सिंहासनारूढ़ कर देता है। शकराज गुप्त साम्राज्य से अपने पुरखों के अपमान का प्रतिशोध होने के लिए खिगिल के माध्यम से एक प्रस्ताव रामगुप्त के पास भेजता है कि यदि वह अपने राज्य की सुरक्षा चाहता है तो उसके लिए उपहारस्वरूप अपनी महारानी ध्रुवस्वामिनी और हमारे सभी श्रीमंतों के लिए स्त्रियां भेजदे। रामगुप्त शकराज की बढ़ती शक्ति से पहले ही भयभीत है। इसलिए अपने मंत्री शिखरस्वामी की मंत्रणा के बाद राज्य के हित को ध्यान में रखकर महारानी ध्रुवस्वामिनी और शकराज के सभी श्रीमंतों के लिए अपनी स्त्रियां भेजने के लिए तैयार हो जाता है।

ध्रुवस्वामिनी को जब यह पता चलता है तो वह सीधे निर्भीक होकर अमात्य को चुनौती देते हुए कहती है-

मैं केवल यही कहना चाहती हूं कि पुरुषों ने स्त्रियों को अपनी पशु-संपत्ति समझकर उन पर अत्याचार करने का जो अभ्यास बना लिया है, वह मेरे साथ नहीं चल सकता।

चंद्रगुप्त अंतर्मन से ध्रुवस्वामिनी के प्रति अनुरक्त है लेकिन राजमर्यादा के कारण वह अपना यह मनोभाव प्रकट नहीं होने देता। ध्रुवस्वामिनी भी इस सत्य से अवगत है। वह राजाज्ञा से ध्रुवस्वामिनी के साथ शकराज के पास जाने के लिए तैयार हो जाता है। सहसा नील वोहित रंग के धूमकेतु को दुर्ग की ओर भयानक संकेत करता हुआ देखकर शकराज किसी अनिष्ट की आशंका से कांप उठता है।

आचार्य मिहिरदेव शकराज को चेताते भी हैं कि-

स्त्री का सम्मान नष्ट करके तुम जो भयानक अपराध करोगे, उसका फल क्या अच्छा होगा?’

लेकिन विनाश काले विपरीत बुद्धि।जैसे ही स्त्री भेषधारण किए हुए चंद्रगुप्त ध्रुवस्वामिनी के साथ जब शकराज को एकांत में मिलता है तो ध्रुवस्वामिनी का भेष धारण किए हुए चंद्रगुप्त शकराज को चुनौती देते हुए कहता है-

मैं हूं चंद्रगुप्त तुम्हारा काल। अकेला आया हूं तुम्हारी वीरता की परीक्षा लेनेसावधान!’

 

चंद्रगुप्त शकराज से युद्ध में उसकी हत्या कर देता है और देवी ध्रुवस्वामिनी की जय हो का सामंत कुमारों का समवेत स्वर सुनाई देता है। ध्रुवस्वामिनी नारी सशक्तीकरण की जैसे प्रतिमूर्ति प्रतीत होती है। वह रामगुप्त को तत्काल दुर्ग से बाहर निकलने का आदेश देती है और नाटक ध्रुवस्वामिनी के चंद्रगुप्त के वरण के निर्णय के साथ समाप्त होता है।

नाटक में पुरूष स्तातमक समाज के शोषण के प्रति नारी का विद्रोही स्वर सुनाई पड़ता है। वैसे प्रताड़ित स्त्री की अवस्था का चित्रण इस नाटक में मुख्य है परन्तु नारी-स्वतंत्रता के भाव से परिपूर्ण आधुनिक चेतना के कारण ही इसमें पहली बारध्रुवस्वामिनीप्रतिक्रिया करती है।

इस नाटक में कोमा द्वारा प्रेम को परिभाषित किया गया है। कोमा ध्रुवस्वामिनी से कहती है-

रानी, तुम भी स्त्री हो, क्या स्त्री की व्यथा नहीं समझोगी? आज तुम्हारी विजय का अंधकार तुम्हारे शाश्वत स्त्रीत्व को ढक ले, किंतु सबके जीवन में एक बार प्रेम की दिपावली जलती है। जली होगी अवश्य। तुम्हारे भी जीवन में वह आलोक का महोत्सव आया होगा, जिसमें ह्रदय ह्रदय को पहचानने का प्रयत्न करता है, उदार बनता है और सर्वस्व दान करने का उत्साह रखता है। मुझे शकराज का शव चाहिए।

ध्रुवस्वामिनी से शव लेकर वह मिहिरदेव के साथ चली जाती है किंतु रस्ते में रामगुप्त के सैनिक उसकी हत्या कर देते हैं। इस नाटक में ध्रुवस्वामिनी से बेहतर प्रेम करना और उसके लिए त्याग करना शायद ही अन्य कोई पात्र कर सकता था। प्रसाद की ध्रुवस्वामिनी प्रेम के अंतर्सघर्ष और विवाह की मर्यादा, इन दोनों पाटों के बीच पिसती रहती है। इसके विपरीत कोमा का प्रेम उसकी आँखों के सामने कुम्हलाने लगता है। वह अपने प्रेमी की वास्तविकता से अनभिज्ञ है या कह सकते हैं कि जब हम किसी से प्रेम करते हैं तो उसकी एक खास छवि हमारे हृदय में होती है जो सभी अच्छाई- बुराई को दरकिनार कर देती है। किंतु कभी यह छवि टूट जाने पर भी कुछ लोग प्रेम-पात्र के साथ बंधे रहना चाहते हैं। लेकिन कोमा के व्यक्तित्व को प्रेम ने पूर्ण किया है, उसे दास नहीं बनाया है। इसलिए वह शकराज के प्रेम को ठुकरा देती है-

प्रेम का नाम लो। वह एक पीड़ा थी, जो छूट गई। उसकी कसक भी धीरे-धीरे दूर हो जाएगी। राजा, मैं तुम्हें प्यार नहीं करती। मैं तो दर्प में दीप्त तुम्हारी महत्वमयी पुरुष-मूर्ति की पुजारिन थी, जिसमें पृथ्वी पर अपने पैरों से खड़े रहने के दृढ़ता थी। इस स्वार्थ-मलिन कलुष से भरी मूर्ति से मेरा परिचय नहीं।

लेकिन प्रेम की विडंबना ही यही है कि प्रेम-संबंधों में दुराव आने के बावजूद उसकी एक धुंधली रौशनी जीवन में बनी रहती है। प्रेम में समपर्ण और त्याग होता है। कोमा का प्रेम भी शकराज के प्रति समर्पण और त्याग है इसलिए शकराज के तिरस्कार के बाद भी उसकी मृत्यु होने पर कोमा शव माँगने ध्रुवस्वामिनी के पास पहुँच जाती है।

रामगुप्त को ध्रुवस्वामिनी से प्रेम नहीं है बल्कि उसके प्रति स्वामित्व का भाव रखता है। विवाह के बाद एक बार भी उसने ध्रुवस्वामिनी से शारीरिक संबंध नहीं बनाया। ध्रुवस्वामिनी जानती है कि रामगुप्त को विलासिनियों के साथ मदिरा में उन्मत के आनंद से अवकाश कहाँ है? रामगुप्त उसे अपनी विवाहिता मानकर उसपर अपना पूर्ण अधिकार रखता है। वह ध्रुवस्वामिनी से कहता है-

तुम उपहार की वस्तु हो। आज मैं तुम्हे किसी दूसरे को देना चाहता हूँ, इसमें तुम्हें क्यों आपत्ति हो?

अर्थात् समाज में ऐसे अधिकतर पुरुष हैं जो स्त्री को मात्र वस्तु समझते हैं। *रामगुप्त के जैसे ही शकराज को भी स्त्री केवल उपभोग मनोरंजन की वस्तु लगती है।* 

कोमा पूछती है-

तो क्या आपकी दुश्चिंताओं में मेरा भाग नहीं? मुझे उससे अलग रखने से क्या वह परिस्थिति कुछ सरल हो रही है?

गौर करने की बात यह है कि स्त्री का हरण या अपहरण सामाजिक मान-अपमान का पैमाना बन गया है। यदि युद्ध होते है तो स्वयं को बचाने के लिए पुरुष परिवार की स्त्रियों को भेंट स्वरूप दे देते थे या स्त्रियाँ का हरण कर लिया जाता था। अर्थात् स्त्री को समाज के प्रत्येक युद्ध में अपने अस्तित्व की आहुति देनी पड़ती है। 

प्रसाद ध्रुवस्वामिनी में प्रेम की अवधारणा के साथ आनंद और वेदना का गहरा आख्यान करते हैं, लेकिन विवाह की परंपरागत व्यवस्था की जटिलताओं में उलझ कर तोड़ नहीं पाते। वह विवाह संस्था को भारतीय परिप्रेक्ष्य में सही मानते हैं। लेकिन यदि विवाह त्रासदी का रूप धारण का ले तो प्रसाद उससे मुक्ति पर भी बल देते हैं।ध्रुवस्वामिनीनाटक में इसी नारी मुक्ति प्रमाण निहित है। शकराज युद्ध में मारा जाता है और ऐसी स्थिति में भी ध्रुवस्वामिनी विवाहेतर संबंध और विवाह मुक्ति के द्वंद्व में फंसी हुई है। वह चंद्रगुप्त का वरण कर सकती है, किंतु उसे अपने प्रेम के झुकाव के प्रति गहरा संदेह होता है। 

वह मंदाकिनी से कहती है-

दुर्ग की विजय मेरी सफलता है या मेरा दुर्भाग्य, इसे मैं नहीं समझ सकी हूँ। राजा से मैं सामना करना नहीं चाहती। पृथ्वीतल से जैसे एक साकार घृणा निकल कर मुझे अपने पीछे लौटने का संकेत कर रही है, क्यों, क्या यह मेरे मन का कलुष है? क्या मैं मानसिक पाप कर रही हूँ? 

ध्रुवस्वामिनी और चंद्रगुप् का पुनर्लग् प्रसाद की प्रगतिशीलता है क्योंकिपौरूष के बल पर स्त्री को दासी माननेवाले रामगुप् की मृत्यु के बाद वह अपनी इच्छा से चंद्रगुप् का वरण करती है। 

डॉ. ओझा के अनुसार'स्वामिनीनाटक का उद्देश्य स्त्री के पुनर्विवाह की समस्या को प्रकाश में लाना है। 

इस नाटक में मंदाकिनी जैसे पात्रों की सृष्टि की गई है जो जड़ शास्त्र के खिलाफ आवाज उठाती है कि

जिन स्त्रियों को धर्म-बंधन में बांधकर, उनकी सम्मति के बिना आप उनका सब अधिकार छीन लेते है, तब क्या धर्म के पास कोई प्रतिकार, कोई संरक्षण नहीं रख छोड़ते, जिससे वे स्त्रियाँ अपनी आपत्ति में अवलम्ब मांग सके। 

प्रसाद ने इस नाटक में स्त्री की विभिन्न समस्याओं को उठाया है किंतु इन समस्याओं को भारतीय चिंतन और परंपरा के आधार पर ही ढूँढने का प्रयास किया है। 

इस नाटक की कथावस्तु स्त्री संघर्ष पर आधारित है और स्त्री-संघर्ष की समाप्ति पर ही अंत दिखाया गया है। अर्थात् ध्रुवस्वामिनी की कथा भी ध्रुवस्वामिनी के संघर्ष से विकसित हुई है और उसके समापन के साथ ही समाप्त हुई है।ध्रुवस्वामिनीनाटक में 'अतिप्राकृतिक, त्रासद जैसे विपदाओं का भी समावेश है जो संयोग और आकस्मिकता को भी महत्व देता है।ध्रुवस्वामिनीनाटक में आधिकारिक कथा के अन्तःसूत्र प्रासंगिक कथा के साथ इस तरह जोड़े गए हैं कि वे दोनों एक हो गयी हैं। कोमा का प्रसंग ध्रुवस्वामिनी के मूल कथा सूत्र से अलग होते हुए भी उसका एक भाग बन गया है। दोनों कथाएँ नारी समस्या को लेकर चलती हैं। प्रसाद ने इस नाटक के माध्यम से एक ओर स्त्री-जीवन से जुड़ी समस्याओं पर विभिन रूपों में दृष्टिपात किया है तो दूसरी ओर गुप्तकालीन इतिहास के उन धुंधले पृष्ठों को भी सामने लाने का प्रयत्न किया है जिसके बारे में अधिकांश इतिहासकार अनभिज्ञ हैं। प्रसाद केध्रुवस्वामिनीमें अयोग्य शासक की व्यवस्था पर अंकुश, राष्ट्र सम्मान की भावना, अक्षम और दोषी शासक को दण्डित करने के भाव निहित हैं। लेकिन इसका मूल उद्देश्य 'स्त्री मुक्ति और अस्मिता' है। वर्तमान समय में स्त्री मुक्ति की जो बात कही जाती है प्रसाद ने उसे वर्षों पहले अनुभव कर लिया था और अपने नाटक में उसकी अभिव्यक्ति भी की है। प्रसाद ने अपने इस नाटक में नारी के अस्तित्व, अधिकार, पुनर्विवाह की समस्या को उठाया है। अतः प्रसाद का नाटकध्रुवस्वामिनीसमाज में स्त्री चिंतन के विभिन्न दृष्टिकोणों को समग्रता में लिए हुए ऐतिहासिक काल्पनिक कृति है। 

निष्कर्षतः ध्रुवस्वामिनी में इसी ओर संकेत है कि स्त्री की मुक्ति तभी संभव है, जब व्यवस्था में परिवर्तन हो। नयी व्यवस्था में नयी नैतिकता और विधिशास्त्र' को लाया जाये। तभी स्त्री की मुक्ति और अस्तित्व में नया आयाम सकेगा। नारी मुक्ति से जुड़ा एक पहलू यह भी है कि क्या विवाह ही स्त्री के जीवन का लक्ष्य है? क्या स्त्री की नियति एक पुरुष से दूसरे पुरुष तक भटकने की है? इन सभी सवालों के जवाब ध्रुवस्वामिनी ने दिया है और यह प्रतिपादित करती है कि पुरुष यदि गौरव से नष्ट और आचरण से पतित हो, तो वह स्त्री के योग्य नहीं है। रामगुप्त से मुक्त हो कर ध्रुवस्वामिनी अकेले जीवन यापन कर सकती है लेकिन वह किसी से प्रेम करती है। प्रेम के लिए आज तक त्याग देने के बाद उसे आखिरकार चन्द्रगुप्त का प्रेम मिल गया है। 'ध्रुवस्वामिनीकी नाटकीय घटनाएँ इतिहास के जिस काल में घटती हैं, वहां शायद प्रसाद के प्रश्नों ने उस व्यवस्था को हिला दिया होगा।

ध्रुवस्वामिनी नाटक की तात्विक समीक्षा

ध्रुवस्वामिनीजयशंकर प्रसाद द्वारा रचित एक ऐतिहासिक नाटक है | इस नाटक में सम्राट समुद्रगुप्त के पश्चात के उस काल को दिखाया गया है जिसमें गुप्त वंश की बागडोर एक निर्बल कायर शासक रामगुप्त के हाथों में गई थी और गुप्त वंश पतन की ओर अग्रसर था | यद्यपि सम्राट समुद्रगुप्त अपने छोटे पुत्र चंद्रगुप्त को उत्तराधिकारी बनाना चाहते थे लेकिन अमात्य शिखर स्वामी के सहयोग से एक षड्यंत्र द्वारा ज्येष्ठ पुत्र रामगुप्त ने राजसत्ता हथिया ली |

नाटक के तत्वों के आधार परध्रुवस्वामिनीकी समीक्षा

कतिपय विद्वानों ने नाटक के छह अनिवार्य तत्व माने हैं

1.कथावस्तु या कथावस्तु

2. पात्र एवं चरित्र चित्रण

3.  संवाद कथोपकथन

4.  देशकाल वातावरण

5. अभिनेयता

6. उद्देश्य

 

नाटक के इन अनिवार्य तत्वों के आधार पर ध्रुवस्वामिनी नाटक की समीक्षा इस प्रकार की जा सकती है:-

 

1. कथावस्तु

कथावस्तु किसी भी नाटक का मूल आधार होता है जिसके आधार पर संपूर्ण नाटक का खाका खींचा जाता हैध्रुवस्वामिनी नाटक की कथावस्तु के आधार पर समीक्षा करने से पूर्व इसके संक्षिप्त कथासार को जानना आवश्यक है |

 

ध्रुवस्वामिनी नाटक तीन अंकों में विभक्त है | प्रथम अंक रामगुप्त के शिविर में आरंभ होता है, दूसरा अंक शकराज के शिविर में आरंभ होता है तथा तृतीय अंतिम अंक का पर्दा शकदुर्ग के भीतरी प्रकोष्ठ में उठता है और वहीं  ‘ध्रुवस्वामिनीनाटक का अंत होता है |

 

यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि सम्राट चंद्रगुप्त द्वितीय ने अपने बड़े भाई राम गुप्त की हत्या कर उसकी पत्नी से विवाह कर लिया था परंतु इस नाटक में सम्राट चंद्रगुप्त द्वितीय के द्वारा उठाए गए इस कदम के पीछे के कारणों  की पड़ताल की गई है |

 

ऐसा माना जाता है कि रामगुप्त अत्यंत कायर और विलासी प्रवृत्ति का था और सम्राट बनने के लिए सर्वथा अयोग्य था | इसीलिए सम्राट समुद्रगुप्त ने अपने छोटे पुत्र चंद्रगुप्त को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया था परंतु रामगुप्त अपने अमात्य   शिखर स्वामी के साथ मिलकर एक षड्यंत्र रचता है और चंद्रगुप्त की वाग्दत्ता पत्नी ( मंगेतर ) अथवा प्रेयसी ध्रुवस्वामिनी से विवाह कर लेता है और स्वयं राजसिंहासन पर अधिकार कर लेता  है |

 

इस पर भी चन्द्रगुप्त स्वेच्छा से रामगुप्त को सम्राट स्वीकार कर लेता है | ध्रुवस्वामिनी भी धीरे-धीरे अपने आप को परिस्थितियों के अनुसार ढालने की कोशिश करने लगती है |


परंतु उस समय चंद्रगुप्त के सब्र का बांध टूट जाता है जब रामगुप्त अपनी कायरता की सभी हदों को पार करते हुए अपनी पत्नी ध्रुवस्वामिनी को शकराज को सौंपने के लिए तैयार हो जाता है |

 

चंद्रगुप्त स्वयं ध्रुवस्वामिनी के वेश में शकराज के शिविर में जाता है और उसका वध कर देता है |

रामगुप्त धोखे से चंद्रगुप्त की हत्या करना चाहता है तो एक सामंत रामगुप्त को देख लेता है और उसकी हत्या कर देता है |

 

अंत में चंद्रगुप्त ध्रुवस्वामिनी से विवाह कर लेता है और चंद्रगुप्त सम्राट ध्रुवस्वामिनी साम्राज्ञी बन जाती है |

 

इस प्रकार ध्रुवस्वामिनी नाटक की कथावस्तु अत्यंत रोचक सरस सुगठित है जो सहज स्वाभाविक रूप से विकसित होती है | इसमें सर्वत्र रोचकता एवं जिज्ञासा बनी रहती है | गीतों के समावेश से कथावस्तु और अधिक मार्मिकसंवेदनशील प्रभावशाली बन गई है |

 

2. पात्र और चरित्र-चित्रण

किसी भी नाट्य कृति की सफलता-असफलता में पात्र-योजना निर्णायक भूमिका निभाती है | पात्र ही कथावस्तु को गति प्रदान करते हैं | रंगमंच पर पात्रों के माध्यम से ही कथावस्तु दर्शकों तक पहुंचती है |

 

पात्र-योजना के दृष्टिकोण से ध्रुवस्वामिनी एक सफल नाटक है | सभी पात्र नाटक में स्वाभाविक भूमिका निभाते हुए प्रतीत होते हैं ; कोई भी पात्र अनावश्यक नहीं लगता |

 

नाटक के प्रमुख पात्रों में चंद्रगुप्तध्रुवस्वामिनीरामगुप्त, शकराज  शिखर स्वामी को लिया जा सकता है जबकि गौण पात्रों में मिहिर देव, मंदाकिनीकोमा आदि आते हैं |


इनमें से कुछ पात्र सद्गुणों को लिए हुए हैं तो कुछ खल पात्र कहे जा सकते हैं |

 

चंद्रगुप्त ध्रुवस्वामिनी, मंदाकिनी, मिहिर देव, कोमा आदि सदगुणों से युक्त हैं तो रामगुप्त, शकराज, शिखर स्वामी आदि खल पात्र हैं |

 

चन्द्रगुप्त कोध्रुवस्वामिनीनाटक का नायक कहा जा सकता है | वह वीरता, पराक्रम तथा मानवीय गुणों से युक्त है | अपने बड़े भाई रामगुप्त के द्वारा जबरन सत्ता हथिया लेने तथा अपनी वाग्दत्ता पत्नी ध्रुवस्वामिनी के खो देने के बाद भी वह अपने बड़े भाई का विरोध नहीं करता लेकिन मन ही मन वह ध्रुवस्वामिनी से प्रेम करता रहता है और चाह कर भी उसे भुला नहीं पाता | यह मानव की स्वाभाविक प्रवृत्ति के अनुकूल है |

 

ध्रुवस्वामिनी का पात्र कई मायनों में महत्वपूर्ण है | एक तरफ वह अपने व्यक्तिगत कष्टों की अभिव्यक्ति करती है वहीं दूसरी ओर  वह नाटक में कई स्थानों पर सदियों से नारी पर हो रहे अत्याचारों के विरुद्ध आवाज उठाकर नाटक की मूल समस्याओं की ओर संकेत करती है |

 

चंद्रगुप्त और ध्रुवस्वामिनी के पात्र अंतर्द्वंद से जूझते हुए पात्र भी प्रकट होते हैं | जो अपने मन की भावनाओं को दबा कर एक-दूसरे से विलग होकर जीने को विवश हैं |

 

रामगुप्त, शिखर स्वामी और शकराज के पात्र मानव की बुरी प्रवृत्तियों का प्रतिनिधित्व करते हैं |

 

कोमा, मंदाकिनी और मिहिर देव के पात्र यद्यपि नाटक में बहुत थोड़े समय के लिए आते हैं लेकिन अपना अमिट प्रभाव छोड़ जाते हैं |

 

कुछ आंशिक त्रुटियां होने के बावजूद पात्र एवं चरित्र चित्रण के दृष्टिकोण से ध्रुवस्वामिनी एक सफल रचना कही जा सकती है |

 

3. संवाद कथोपकथन

नाट्य कृति में संवाद सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं | यह संवाद कथानक पात्रों  के अनुकूल होने चाहिए | प्राय: छोटे-छोटे संवाद अधिक प्रभाव छोड़ते हैं | रंगमंच पर छोटे संवाद अधिक प्रभावशाली सिद्ध होते हैं लेकिन साहित्यिक नाटक में कई बार बड़े-बड़े संवाद कई दार्शनिक पहलू उजागर कर जाते हैं |

 

जब रामगुप्त, ध्रुवस्वामिनी को भेंट स्वरूप शकराज के पास भेजने के लिए तैयार हो जाता है तो ध्रुवस्वामिनी टूट जाती है | और रामगुप्त के समक्ष समर्पण करते हुए कहती है


मेरी रक्षा करो | मेरे और अपने गौरव की रक्षा करो | राजा, आज मैं शरण की प्रार्थिनी हूँ | मैं स्वीकार करती हूं कि आज तक मैं तुम्हारे विलास की सहचरी नहीं हुई किंतु मेरा अहंकार चूर्ण हो गया है | मैं तुम्हारी होकर रहूंगी |”

 

नाटक के अंत में मंदाकिनी भूलवश ध्रुवस्वामिनी को भाभी कह जाती है तो ध्रुवस्वामिनी चंद्रगुप्त के प्रति अपने हृदय में छिपे प्रेम को अभिव्यक्त करते हुए कहती है:–


मंदा! भूल से ही तुमने आज एक प्यारी बात कह दी | उसे क्या लौटा लेना चाहती हो | आह! यदि वह सत्य होती |”


इस प्रकार नाटक के संवाद अत्यंत प्रभावशाली बन पड़े हैं यद्यपि नाटक में तत्सम प्रधान शब्दावली की प्रधानता है | इसके बावजूद संवाद सरल, सहज स्वाभाविक हैं और कथानक को गति प्रदान करते हैं |

 

4. देशकाल वातावरण

नाटक मंचन के लिए लिखे जाते हैं तथा इनमें देशकाल वातावरण का विशेष ध्यान रखा जाता है | ध्रुवस्वामिनी नाटक की कथा का आधार गुप्त वंश है | इसमें समुद्रगुप्त के पश्चात चंद्रगुप्त द्वितीय के राजा बनने तक के काल को दर्शाया गया है | यह समय सीमा लगभग 375 ईसवी से 380 ईसवी के बीच की मानी जा सकती है |

 

प्रस्तुत नाटक में जयशंकर प्रसाद ने अपनी तरफ से पूरी कोशिश की है कि इस कथा के माध्यम से गुप्त वंश की राजनीतिक, आर्थिकसामाजिक धार्मिक स्थिति को पाठकों के समक्ष उसी रूप में प्रस्तुत किया जा सके जिस रूप में कभी वह हुआ करती होगी लेकिन इसके साथ-साथ प्रसाद जी ने अपनी कल्पना के माध्यम से कुछ आदर्शों की सृष्टि भी की है | जैसे कथा के अंत में धर्मगुरु स्वयं रामगुप्त से ध्रुवस्वामिनी के तलाक की व्यवस्था करते हैं और कहते हैं मैं स्पष्ट कहता हूँ कि धर्मशास्त्र रामगुप्त से ध्रुवस्वामिनी के मोक्ष की आज्ञा देता है |

 

इस नाटक में रामगुप्त की विलासिता, स्वार्थपरता चंद्रगुप्त की वीरता पराक्रम, ध्रुवस्वामिनी और कोमा की विवशता सब कुछ तत्कालीन परिस्थितियों के अनुकूल है |

 

पात्रों की वेशभूषा और सामाजिक-धार्मिक परंपराओं का यथार्थ अंकन करते हुए देशकाल एवं वातावरण की दृष्टि से इस नाटक को सफल बनाने की यथासंभव चेष्टा की गई है |

 

5. अभिनेयता

किसी भी नाट्य कृति की सफलता के लिए परम आवश्यक है कि उसमें अभिनेयता का गुण हो | ध्रुवस्वामिनी प्रसाद जी की अंतिम नाट्य कृति है | उस समय तक प्रसाद जी की नाट्य कला अपने चरम पर पहुंच चुकी थी | इसलिए ध्रुवस्वामिनी नाटक अभिनेयता और रंगमंच की दृष्टि से एक प्रौढ़ कृति है |


नाटक तीन अंकों में विभक्त है और प्रत्येक अंक में एक ही दृश्य है | सारा घटनाक्रम बहुत थोड़ी अवधि में पूर्ण हो जाता है |

 

प्रत्येक दृश्य के आरंभ में और उन सभी स्थानों पर जहां दृश्य के बीच में नवीन पात्रों के प्रवेश के कारण वस्तु स्थिति में परिवर्तन की आवश्यकता पड़ी है वहां सूचनाओं द्वारा परिचय दिया गया है ताकि भ्रम कि कोई स्थिति उत्पन्न हो सके | रंगमंच के लिए आवश्यक सभी संकेतों का सृजन किया गया है | दृश्य छोटे छोटे हैं और मंचन में सरल हैं | यह सरलता देशकाल के ज्ञान में किसी प्रकार की कमी नहीं आने देती |

 

लेखक ने रंग-सजा और क्रिया-व्यापार के आवश्यक संकेत भीध्रुवस्वामिनीमें यथा स्थान दिए हैं | इन संकेतों से पात्रों की मानसिक स्थिति मुख-मुद्रा और आंगिक चेष्टाओं का स्पष्टीकरण हो जाता है |

 

गीत-योजना जयशंकर प्रसाद के नाटकों को एक नया वैशिष्ट्य प्रदान करती है | यह गीत पात्रों की मन:स्थिति और अंतर्द्वंद्व को व्यक्त करते हैं |

 

संकलनत्रय  की योजना भी नाटक को जीवंत बनाती है | संवाद संक्षिप्त एवं सजीव हैं जो किसी भी नाटक के मंचन के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण है |


इस प्रकार अभिनेयता की दृष्टि से ध्रुवस्वामिनी एक सफल नाटक है |

 

6. उद्देश्य

सभी साहित्यिक रचनाओं का कोई कोई उद्देश्य अवश्य होता है | प्रसाद जी के नाटक एक विशिष्ट उद्देश्य से युक्त होते हैं |

 

अपनी रचनाओं के उद्देश्य के संबंध में प्रसाद जी स्वयं कहते हैं – ” मेरी इच्छा भारतीय इतिहास के अप्रकाशित अंश से उन घटनाओं का दिग्दर्शन कराने की है जिन्होंने हमारी वर्तमान स्थिति को बनाने का बहुत कुछ प्रयत्न किया है |”

 

इस आधार परध्रुवस्वामिनी'(Dhruvswamini)  नाटक का प्रमुख उद्देश्य इतिहास के उन प्रसंगों पर प्रकाश डालना है जिन पर प्रायः इतिहासकार मौन रहे हैं |


अपने बड़े भाई की हत्या करने और उसकी पत्नी से विवाह करने के बावजूद चंद्रगुप्त पाठकों की सहानुभूति को प्राप्त कर जाते हैं  शायद यही प्रसाद जी का एक उद्देश्य रहा है क्योंकि इतिहास इस तथ्य को तो बताते हैं कि चंद्रगुप्त ने रामगुप्त का वध कर उसकी पत्नी को अपनाया लेकिन इसके पीछे छिपे हुए कारणों की व्याख्या नहीं करते|


प्रसाद जी स्पष्ट करते हैं कि राष्ट्र का कुशलतापूर्वक संचालन रामगुप्त जैसे कायर नहीं बल्कि चंद्रगुप्त जैसे सबल शासक ही कर सकते हैं |

 

इसके अतिरिक्त ध्रुवस्वामिनी के माध्यम से नारी की उन समस्याओं का चित्रण भी किया गया है जिनसे भारतीय समाज प्राचीन काल से लेकर आज तक जूझता रहा है | नारी को अपनी भोग-विलास की वस्तु समझनाअपने स्वार्थ के लिए उसका प्रयोग करना, उसकी हृदय की भावनाओं को कुचलकर उसे विभिन्न बंधनों में बांधनायहां तक कि शादी जैसे पवित्र बंधन के लिए भी उसकी इच्छाओं को अनदेखा कर देना आदि कुछ ऐसी समस्याएं हैं जो इस नाटक में उठाई गई हैं |

 

परंतु नाटक के अंत में जयशंकर प्रसाद जी कल्पना के माध्यम से इस समस्या का निराकरण करते हैं जब धर्मगुरु स्वयं रामगुप्त से ध्रुव स्वामिनी की मुक्ति को धर्म-अनुकूल मानते हैं |

नाटक के अंत में लोकतांत्रिक मूल्यों को भी दिखाया गया है जहां जनता स्वयं अयोग्य शासक को हटाने का निर्णय लेती है| 


इस प्रकार प्रसाद जी नेध्रुवस्वामिनी'(Dhruvsvamini) नाटक के माध्यम से अनेक उद्देश्यों की पूर्ति की है |


निष्कर्षतः हम कह सकते हैं कि नाटक के तत्वों के आधार परध्रुवस्वामिनी’ (Dhruvswamini) एक सफल नाटक है|


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